SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ इक्यासी] जिन गुण राग-पराग थी, रे वासित मुज परिणाम रे । तजशे दुष्ट विभावता रे, सरशे प्रात्तम काम रे ॥ जिन भक्ति रत चित्तने रे, वेधक रस गुण प्रेम रे ॥ सेवक जिनपद् पामशे रे, रसवेधित अय जेम रे ॥ परमातम गुण स्मृति थकी रे, फरश्यो पातम राम रे ॥ नियमा कंचनता लहे रे लोह ज्यु पारस पाम रे॥ पौद्गलिक संबंधों से उनकी विरक्ति गजब की थी। देहधाारी होते हुए भी वे विदेह थे। वैराग्य की तान में अपने दोषों के लिये प्रात्मा पर उन्होंने जो चाबुक लगाये एवं भविष्य के लिये जो उद्बोधन दिये वे बड़े मार्मिक हैं । "हूं सरूप निज छोड़ी, रम्यों पर पुद्गले । झील्यो उल्लट प्राणो विषय तृष्णा जले । आश्रव बंध विभाव करूं रूचि आपणी, भूल्यो मिथ्यावास दोष द्यु पर भणी ॥ अवगुण ढांकरण काज करूं जिनमत क्रिया, न त अवगुण चाल अनादिनी जे प्रिया ॥ दृष्टिरागनो पोष तेह समकित गणु, स्याद्वादनी रीत न देखु निजपणु ॥ आत्मा को उद्बोधन देते हुए एक पद में कहते हैं, आतम भावे रमो हो चेतन ! आतम भाव रमो । परभावे रमतां ते चेतन ! काल अनंत गमो हो । ... उनके वैराग्य की खुमारी देखिये । मुनि चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy