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[अस्सी] सौन्दर्य मदमस्त करता है किन्तु प्रभु का सौन्दर्य "न वधे विषय विराम" का एक अद्वितीय उदाहरण है।
श्री सिद्धाचल, गिरनार, सम्मेत शिखर आदि पवित्र तीर्थस्थलों के प्रति आपके हृदय में अनन्य भक्ति थी। अपने इस भक्तिरस को स्तवन-स्तुतियों के द्वारा आपने खूब छलकाया है।
वस्तुतः श्रीमद् की भक्त दशा अत्यन्त उच्चकोटि की है । ऊँच्चमात्मदशा, अद्भूत वैराग्य, एवं निजानंद मस्तीः
___ व्यक्ति के उद्गार उसके अन्तरंग भावों के परिचायक होते हैं । हृदय से निसृत उद्गारों में कभी कृत्रिमता नहीं होती। कविता कवि हृदय का दर्पण है । भक्त की स्तवना भक्त का हृदय है। ज्ञानी के ग्रन्थ उसका अन्तरंग जीवन है। अतः श्रीमद् के ग्रन्थों, स्तवनों एवं स्वाध्याय पदों से यह स्पष्ट अनुभव होता है कि श्रीमद् की आत्मदशा अत्यंत उच्चकोटि की थी। शरीर, इन्द्रिय और मन पर उनका गजब का काबू था। उनके विषयराग और कामराग की ज्वालायें शान्त हो गई थीं। वे सतत अप्रमत्तदशा में रमरण करते थे। यही कारण था कि उनका
आत्म-जीवन मस्तीपूर्ण एवं आनन्दमय था। उस आनन्द की मस्ती में उनके जो उद्गार निकले वे वैराग्य की खुमारी और अनुभव ज्ञान की लाली से अतिदीप्त हैं। देखिये उनके आत्मदशा के उद्गार
"आरोपित सुख भ्रम टल्यो रे भास्यो अव्याबाघ । समर्यों अभिलाषी पणो रे कर्ता साधन साध्य ॥" "इन्द्र चन्द्रादि पद रोग जाणयो,
शुद्ध निज शुद्धता धन पिछाण्यो । को आत्म-धन अन्य आपे न चोरे, कोण जग दोन वलि कोण जारे ॥"
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