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प्रथम वण्ड
तीन काल अढाई द्वीप में, केवल नाण पहाण वि० । कल्याणक करी प्रभु इहां सामठा, लाभ गुण मरिण खाणि वि०॥८॥स०॥ सहस्त्रकूट सिद्धाचल ऊपर, तिमहिज धरण विहार। तिणथी अद्भुत छै ए थापना, पाटण नगर मझार वि०॥६॥०॥ तीर्थ सकल वलि तीर्थकर सहू, इण पूज्यां तेह पूजाय वि० । एक जीह' थी महिमा एहनी, किरण भांत कहवाय वि० ॥१०॥स०।। श्रीमाली कुलदीपक जेतसी, सेठ सुगुरण भंडार वि० । तसु सुत सेठ सिरोमणि, तेजसी पाटण में सिरदार वि०।।११।।स०॥
तिण ए बिंब भराव्या भाव सुं, सहस अधिक चौबीस वि० । कीध प्रतिष्ठा पूनम गछधरू भावप्रभसूरी स वि० ।१२।।स०।। सहस जिरणेसर विधिस्यु पूजस्य, द्रव भाव शुचि होय वि० । इह भव परभव परम सुखी होस्यै, लहस्यै नवनिधि सोय वि०।।१३।।स०।। जिनवर भगति करै मन रंग तूं, भविजन नी छ ए रीति वि० । दीपचंद्र सम जिनराजथी, देवचंद्र नी हो प्रीति वि० ॥१४॥स०॥
इति श्री सहस्त्रकूट जिन स्तवनम्
१-एक जोभ से
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