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[ चार ]
श्रीमद् की कृतियाँ हैं । प्रागमसार लघु पुस्तक होते हुए भी विशाल है । इसमें अल्प में अधिक अर्थात् गागर में सागर भर दिया गया है। जगत में गीता प्रसिद्ध है । उसमें भी अध्यात्म गीता श्रेष्ट है । आत्मा के निस्तार के लिए अध्यात्म गीता का स्वाध्याय परमावश्यक है । इस गीता से प्रभावित होकर परम पूज्य उपाध्याय श्रीमद् लब्धिमुनिजी महाराज साहब ने जीवन के अन्तिम वर्षों में इस गीता को कंठस्थ की और नित्य उसका स्वाध्याय करते थे । इस अनुपम कृति का स्वाद तो अध्यात्म प्रेमी, भक्त हृदय ही अनुभव कर सकता है।
श्रीमद् गच्छ के कदाग्रही नहीं थे । सत्य अन्वेषक सर्व को समान मानता है । इस महापुरुष ने न्याय विशारद श्रीमद् यशोविजयजी महाराज साहब की रचना ज्ञान सार के ऊपर ज्ञान मंजरी नामक टीका की रचना की । यह उनके उदार दृष्टिकोण का ही प्रतीक है । प्राचार्य बुद्धिमागर सूरिजी ने भी सत्य के साथी बनकर देवचन्द्रजी महाराज साहब का साहित्य प्रकाशित किया है । नाना भाँति के पुष्पों से वनी माला अलग-अलग सौरभ को संकलित करके श्रेष्ट सुगन्ध को प्रसारित करती है । प्रस्तुत पुस्तक में संकलित विविध प्रकार के पुष्पों की महक सर्वत्र व्याप्त होगी ऐसी प्राशा की जाती है । प्राध्यात्मिक साहित्य की कृति जब प्रकाशित होती है तब आत्मार्थी व्यक्तियों को प्रानन्द की अनुभूति होती है। इनके ज्ञान को समझने में यदि अल्पज्ञ व्यक्ति प्रयत्न करें तो विद्वान जगत में उपहास का काररण ही बनेगा। फिर भी भाव की वृद्धि में सर्व गोरा बन जाता है ।
प्रिय वाचक वृन्द
यह पुस्तक जिनकी प्रेरणा और मार्ग-दर्शन में प्रकाशित हो रही है वह परम पूज्य गुरुदेव श्री जयानन्द मुनिजी महाराज साहब की गुरु कृपा से प्राप्त हुई ज्ञान की भेंट है। इस उपहार से हम सब आनन्द के साथ ज्ञान प्राप्त करके मानव जीवन को सफल करें। अनन्त जन्म की अपेक्षा से मानव जीवन की कल्पना अंश मात्र ही है । सर्व कोई ज्ञान के सागर को प्राप्त करके भव सागर तैर कर निजानन्द के सागर को प्राप्त हो यही भव्य अभिलाषा है ।
मांडवो कच्छ दि० १-५ ७७ (गुजरात)
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ईश्वरलाल चुन्नीलाल लूणिया
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