________________
४८ ]
भीमद् देवचन पच पी
अनागत पद्मनाभ जिन स्तवन वाटड़ी' विलोकु रे भावि जिन तणी रे, पदमनाभ जसु नाम । दूसम' दूषित भरत कृपा करो, उपसम अमृत धाम ।।१॥वा०॥ वीर निमते रे श्रेणक नै भवरे, तुमे बांधु जिन भाव । कल्याणक अतिसें उपगारता रे, वीर समान स्वभाव ॥२॥वा०।। सुदि असाढे छट्ठी नै दिन रे, उपजस्यो जगनाथ । चैत्र धवल लेरस प्रभु जनमस्यो रे, थासै मेरू सनाथ ॥३।।वा०॥ मागसिर बदि दसमी दिक्षा ग्रही रे, वरस्यो चरण उदार । सुदि वैसाखै दसमी केवली रे, चौविह संघ आधार ॥४॥वा०॥ समवशरण सिंघासण बैसिनै रे, प्रभु करस्यो वाख्यान । . प्रातम धरम सुणु तिण अवसरे रे, धरती प्रभु गुण ध्यान ।।५।।वा०॥ सैमुख त्रिपदी पामी गणधरा रे, रचस्यै द्वादस अंग । ते वेला हुं प्रभु चरणे रहुँ रे, जिनधरमै द्रढ रंग ॥६।।वा०॥ दीवाली दिन सिवपद पामस्यो रे, शुद्धातम मकरंद । देवचंद साहिब नी सेवना रे, करतां परम आनंद ।।७।।वा०॥
इति, अनागत पद्मनाभ जिन स्तवनम्
१-प्रतीक्षा करना २-पंचमकाल के प्रभाव से दूषित बने, इस भरतक्षेत्र पर ३-ज्ञानादि धर्मों का श्रवण ४-आपके श्रीमुख से गणधर भगवान, त्रिपदी को प्रा
कर १२ अंगों की रचना करेंगे।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org