________________
११० ]
श्रीमदेवचन्द्र पथ पीयूष!
.
.
.
.
.
.
.
म्रमर' अर्धशशि धनुह' कमल दल, कीर हीर पुनम शशि नी । शोभा तुच्छ थई प्रभु देखत, कायर हाथ जेम असिनी ॥हूं तो०॥२॥
मनमोहन तुम सन्मुख निरखत, आँख न तृपति अमची । मोह तिमिर रवि हर्ष चंद्र छबि, मूरति ए उपशम ची ।।हुं तो०॥३॥ मन नी चितमिटी प्रभु ध्यावत, मुख देखतां तनु नी । इंद्रिय'' तृषा गई सेवंतां, गुण'२ गांवंतां वचन नी ।हुं तो०।४।।
मीन चकोर मोर मतंगज, जल शशि घन वन निज थी । तिम मुझ प्रीति साहिब सुरत थी, और न चाहूं मन थी ।हुं तो०।।५।। ज्ञानानंदन जग प्रानंदन, प्राश दास नी इतनी । देवचंद्र सेवन में अहनिशि, रमजो परिणति चित्तनी ।हुं तो०॥६॥
-
१-केश कलाप द्वारा भंवरों का। २-भाल से अर्धचन्द्र की ३-भौगों से धनुष
की। ४-नेत्र द्वारा कमल दल की। ५-नाक से तोते की। ६-दाँतों से हीरे. की शोभा तुच्छ लगती है। ७-मुख से पूर्णिमा का चांद फीका हैं। ८-तलवार ९-मन की चिता प्रभु के ध्यान से मिट गई है। १०-दर्शन से तनेकी ११-सेवन करने से इन्द्रियों की और १२-गुण-गाने से वचन की। १३-हाथी।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org