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प्रथम खण्ड
वीर निर्वाण
राग -- प्रासाउरो
प्रत्शान्ति कान्ति समता निशान्तं दुष्टाष्ट कर्म क्षयकं नितान्तम् ।
निर्मोह मानं परमं प्रशान्तं वन्दे जिनेशं चरमं महान्तम् || १॥
स्याम्बिका श्री त्रिशलाभिधाना, सिद्धार्थ राजा जनक: प्रसिद्धः । विश्वोपकृत दुस्सह दुःसमेपि, तंवीरनाथं प्रणतोस्मि भत्ता ||२|| (१) ढाल - तीजे भव वर थानक तप करि
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ार वरस तप साधन कीनौ, तीस वरस श्रुत वरस्यो । नुपम ज्ञान प्रकाशी जिनवर, मुनिवर तुझ रस फरस्यौ || १ || तू ० ॥
। प्रभुजी ! तूं साहिब सुख दाई,
त् जगनाथ कहाई हो साहिब जिनवर तू सुखदाई |
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पद सेवत श्र ेणीक सम पदवी तुरत निपाई,
तो अलख अनंत अमोही, निज पर आतम सोही । गत विछोही कोही लोही, हुं तुझ दरसन मोहि हो जि० ||२|| तू ॥ देव अहिंसा तें वरताई, निज गुण संपति पाई ।
लोक त्राई गत माई, भवि कू शिवपद दाई हो प्र० ।। ३ ।। त्० ॥ महसेन में तीरथ ठाई, चौविह संघ सवाई । गणधर कु समता सिखलाई, चंदना समता पाई हो प्र० ||४|| || भाई, सुलसा रेवई बाई । सांची भगति सहाई हो प्र०
॥ ५ ॥ ० ॥
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