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[ तेईस ] उसे खत्म करने का प्रयत्न किया जाता। इस प्रयास में महान आचार्यों ने शिष्यों तक का मोह त्याग दिया था । श्रीमद् के समय साधु-जीवन में पुन: शिथिलता व्याप्त हो गई थी। सुविहित-परंपरा के संस्कारों को विरासत में पाने वाले श्रीमद् की त्यागी-वैरागी आत्मा में इसका बड़ा दुख था । अतः आपने शैथिल्य का सर्वथा परिहार कर उत्कृष्ट-त्यागमय जीवन अपना लिया। फलतः उस समय आपके पास केबल ८-१० शिष्य प्रशिष्य ही टिक सके, जो प्रापको तरह ही कठोर साधु-जीवन के पालन में रूचि रखते थे।
१-इस दृष्टि से अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरि का नाम उल्लेखनीय है । संवत्
१६१४ में चैत्रकृष्णा ७ को जब सूरिजो ने क्रियोद्धार की उद्घोषणा की तब २०० शिष्यों में से आपके पास कुल १६ ही शिष्य रहे । अवशिष्ट, जो विशुद्ध संयम का पालन करने में असमर्थ थे, उन्हें गृहस्थ के कपड़े पहिनाकर अलग कर दिया। इन्हीं से 'मत्थेरण' (महात्मा) जाति का उद्भव हगा। यह जैन जाति
आज भी मारवाड़, मेवाड़ में विद्यमान है। २-यह मन्दिर हाजा पटेल की पोल में स्थित शांतिनाथजी की पोल में है। श्री सहस्त्रकरण के नीचे निम्न लेख दिया हुअा है
"संवत् १७८४ वर्षे मागशीर वदि ५ दिन सहस्त्रफरणाथी मंडित श्री पार्श्वनाथ परमेश्वर बिंव कारितं उपकेशवंशे साह प्रतापशा भार्या प्रतपदे पुत्र शा. ठाकरशी केन आणंदबाई भगनी झवरयुतेन बृहत्वरतरगच्छे भट्टारक श्री युग प्रधान, श्री जिनचन्द्रसूरि, शिष्याणां महोपाध्याय श्री........शिष्य उपाध्याय श्री देवचन्द्र गणि शिष्य-युतैः"
... (श्री पादराकरजी द्वारा लिखित श्रीमद् का जीवन-चरित्र पृ. ३१)
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