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________________ [ बहत्तर ] जैसे बीज के अंकुरित होने के लिये भू और जल की आवश्यकता है, बसे है आत्म गुणों के विकास के लिये प्रभु के आलंबन की आवश्यकता है। सटीकता य है कि — नान्यः पन्थाः" की प्रतीति बीज, वृक्ष और जल के संबंध की विशेषत से होती है। इसी प्रकार अनन्तनाथ स्तवन में भवदव हो प्रभु भवदव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समीजी। मिथ्या विष हो प्रभु मिथ्या विष नी खीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मन रमीजी ।। यहां अनन्यता की प्रतीति ताप और वृष्टि, विष और जांगुलि (गारूडी) । संबंधों के कारण ही है। आध्यात्मिक पुरजोश (Enthusiasm) से भरपूर आपका दीपावली का रूपकम वर्णन देखिये-- आज मारे दीवाली थई सार, जिनमुख दीठा थी। अनादि विभाव तिमिर रयणी में, प्रभु दर्शन आधार रे।। जिनमुख दीठे ध्यान आरोहण, एह कल्याणक वातरे । प्रातमधर्म प्रकाश चेतना, 'देवचन्द्र' अवदात ।। प्रभु की भक्तिपूर्ण स्तवना के साथ वे वियोग और विछोह के वर्णन को में भूले नहीं हैं। जिस गंभीरता के साथ आपने, राजीमती व गौतम के शब्दों वियोग का वर्णन किया है, वह साहित्य निधि का अनमोल · रत्न है। वीरप्र निर्वाण स्तवन में उनकी विरह - व्यथा देखिये-- मात विहूणो बाल ज्यू रे, अरहो परहो अथड़ाय । वीर विहूणा जीवड़ा रे, प्राकुल-व्याकुल थाय रे वीरप्रभु सिद्ध थया ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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