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________________ धीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष श्रत भाबना' मन थिर करे, टाले भव नो खेद । तप भावन काया दमें. वमे वेद उमेद ॥६॥ सत्व भाव निर्भय दसा, निज लघुता इक भाव । तत्व भावना प्रात्म गुण, सिद्धि साधन दाब ॥७॥ ढाल-१--श्रुत भावना की (लोक सरूप विचारो प्रातम हित भणी रे-ए देशी) श्रु त अभ्यास करौ मुनिवर सदा रे, अतीचार सहु टालि । हीन अधिक अक्षर मत उच्चरौ रे, शब्द अर्थ संभालि ॥१॥श्र ।। सूक्षम अर्थ अगोचर दृष्टि थी रे, रूपी रूप विहीन । जेह अतीत अनागत वरतता रे, जाणं ज्ञानी लीन ॥२॥श्र०।। नित्य अनित्य एक अनेकता रे, सद सदभाव स्वरूप । छए भाव इक' द्रव्ये परणम्यारे, एक समय मां अनूप ॥३॥श्र ०॥ उत्सर्ग अपवाद पदे करी रे, जाणे सह श्रत चाल । वचन विरोध निवारै युक्ति थी रे, थाप दूषण टाल ॥४॥श्रु०॥ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक धरे रे, नय गम भंग अनेक । । नय सामान्य विशेष ते ग्रहें रे, लोक अलोक विवेक ||शाश्र ।। १-एक पदार्थ, में एक ही समय में छः भाव परिणत होते है :-नित्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता, सत् और असत्-श्रुतज्ञान द्वारा द्रव्यों के इन छः भावों को विचारे । २-श्रुतज्ञान की उपकारकता नदी सूत्र एवं भगवती के नवम यतक के इकत्तीसवें उद्देशक में 'असोच्चा केवली' के अधिकार में भी बताई गई है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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