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________________ [इक्कीस] जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं रहा। समय-समय पर उसे भी आचारिक और वैचारिक उत्थान-पतन का शिकार होना पड़ा। 'चैत्यवासी-परम्परा" एक ऐसे ही पतन का नमूना था । जैन धर्म में इसके बीज कब से बोये गए थे, यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि प्राचार्य हरिभद्रसूरि जी के समय चैत्यवासियों वा सूर्य मध्यान्ह में था। यह उनके द्वारा रचित सम्बोध प्रकरण से स्पष्ट है। चैत्य का अर्थ है मन्दिर, वासी यानि उसमें रहने वाले । अर्थात् उस समय साधुओं का बहुत बड़ा वर्ग शास्त्र-मर्यादाओं को तोड़ कर मन्दिर में ही बस गया था। उनका खान-पान, धर्मोपदेश, पठन-पाठनादि वहीं होते थे। मन्दिर ही उनके मठ थे । इसके साथ धीरे-धीरे उनमें और भी शिथिलता आ गई थी। शास्त्रवरिणत प्राचारों से उनके प्राचार में बड़ी विसंगति थी। धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त राजनैतिक, सामाजिक और व्यापारिक क्षेत्रों में भी उनकी धाक थी। मंत्र, तन्त्र, के सफल प्रयोग के कारण उन्होंने तत्कालीन राजा और प्रजा को अपने वश कर रखा था। यहां तक कि वे राज्य निर्माता (King Makers) भी थे । शीलगुणसूरि, देवेन्द्र सूरि प्रादि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। यद्यपि हरिभद्रसूरि जी ने इसके विरुद्ध आवाज तो उठाई थी तथापि उस परंपरा को खत्म करने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं था। उसके लिये तो आवश्यकता थी एक ऐसे व्यक्तित्व की जो ज्ञानबल और क्रियाबल दोनों से वरिष्ठ होने के साथ-साथ चैत्यवास के विरुद्ध संप्रदायव्यापी और देशव्यापी आन्दोलन बुलन्द कर सके तथा उसकी भावना को प्रचण्डता के साथ अपने शिष्यों, प्रशिष्यों तक पहुँचा सके। ऐसा प्रखर और तेजस्वी व्यक्तित्त्व वर्धमान सूरि की छत्रछाया में पनपा। वह व्यक्तित्त्व था जिनेश्वरसूरि का। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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