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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
समवशरण स्तवन (जिनागम स्तुति)
अाज गइ थी हुं समवसरण मां, जिन वचनामृत पोवा रे। श्री परमेश्वर बदन कमल छवि, हरखि हरखि निरखेवा रे ।।प्रा०॥१॥
तीन भुवन नायक सुद्धातम, तत्व अमृत रस वूटुं' रे । मकल भविक वसुधा नीलाणी, माहरु मन पण तूर् रे ॥प्रा०॥२॥
मन मोहन जिनवर जी मुझ ने, अनुभव प्यालु दीधो रे । मभ्यग् ज्ञान सहज रस अनूपम, भक्ति पवित्र थई पीधो रे ।।प्रा० ।।३।।
ज्ञान सुधा लीलानी लहरें, अनादि विभाव विसारयो रे । पूर्णानंद अखय अविचल रस, सुचि निज भोग समारयो रे ।।प्रा०।।।। ..
भोली सखीये आम स्यु जोवो, मोह मगन मत राचो रे । देवचंद्र प्रभु सु इंकतान, मिलवु ते सुख साचो रे ।।प्रा०।।५।। .
१-वरसना २-भव्यात्मा रूपी पृथ्वी ३-हरी-भरी होना ४-ज्ञानामृत की जो लीला, उस लीला की लहरों से, प्रात्मा का अनादि का जो विभाव था वह विभाव दूर हो गया है तथा पूर्णानन्द का रसास्वाद स्मरण होने लगा है। ५-प्रभु से एकमेक हो जाना।
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