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बीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष
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पंथी जेम सराह' में, नदी नावनी रीति । तिम ए परीयण' तो मिल्यो, तिरणथी सी प्रीति ।।२०।।५।। जां स्वारथ तां सहु सगे, विरण स्वारथ दूर । परकाजे पापै मिले, तूं किम हुवे सूर ॥२०॥६॥ तजि वाहिर मेलावडो, मिलीयो बहु वार । जे पूर्वे मिलीयो नही, तिण सुंधरि प्यार ॥२०॥७।। चक्री हरि बल प्रति हरी, तसु वैभव अमांन । ते पिण काले संहरया, तुझ धन स्ये मान ॥२०॥८॥ हा हा हूं करतो तूं फिरै, पर परिणति चिंत । नरक पडयां कहिं ताहरी, कुण करस्य चित रे०।६।। रोगादिक दुख ऊपने, मन परति म धरेव । पूरव निज कृत कर्म नो, ए अनुभवे हेव ॥२०॥१०॥ एह सरीर असासतो खिरम मैं छीजत । प्रीति किसी तिण ऊपरैx जे स्यारथवंत ॥२०॥११॥ जां लगें तुझ इण देह थी, छै पूरव संग। तां लगि कोड़ि उपाय थी, नवि थाये भंग ॥रे॥१२॥ आगलि पाछलि चिहुं दिन, जे विरणसी जाय । ..
रोगादिक थी नवि रहै, कीधै कोड़ि उपाय ॥२०।।१३।। पाठान्तर- ऊपरा
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१-धर्मशाला-मुसाफिर खाना २-कुटुम्ब ३-प्रति वासुदेव ४-दुःख ५-अनित्य
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