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पंचम खण्ड
अंतइ पिण इरण ने तज्यां, थायै शिव सुक्ख । ते जो' छूटे आप थी, तो तुझ स्यौ दुक्ख || २० || १४ || ए तन विणस्यै ताहरे, नवि कांई हारण ।
जो ज्ञानादिक गुण तणौ, तुझ प्रावै भांग ॥२०॥१५॥ तु अजरामर आतमा, अविचल गुण खाण । खिरण भंगुर जड़ देह थी, तुझ केही पिछांग ॥२०॥१६॥ छेदन भेदन ताड़ना, बध बंधन दाह । पुदगल ने पुदगल करें, त् अमर अगाह ॥०॥१७॥ पूरव करम उदे सही, जन वेदना थाय । ध्यावे प्रातम तिरण समे, ते ध्यानी राय || २० || १८ || ग्यांन ध्यान नी वातड़ी, करणी प्रसान | अंतसमे आपद पडयां, विरला करे ध्यान ||२०|| १६ ||
आरति करि दुख भोगवे, पर वसि जिम कीर । तो तुझ जांण पणा तरणो, गुरण केहो धीर ||२०||२०|| शुद्ध निरंजन निरमलो, निज प्रातम भाव । वि कहि दुख कस्यों, जे मिलियो आव ॥ २० ॥२१॥ देह गेह भाड़ा तणो, ए आपणों नांहि ।
मांहि समाहि ॥०||२२||
तुझ गृह प्रतम ज्ञान ए, ति पाठान्तर - * बह
१ - यदि २ - ध्यान ३ - गुणों का राजा है घर है । ६ -तेरा अपना घर आत्मज्ञान है ।
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४- तोता ५-यह शरीर किराये का ७ - समाधि
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