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श्रीमद् देवचन्द पद्य पीयूष
परिजन मरतो देखी ने रे, शोक करे जन मूढ' । अवसरे वारो' आपणो रे, सहु जननी ए रूढ रे ।।प्रा०॥१३॥ सुर' पति चक्की हरि' हलीरे, एकला परभव जाय । तन धन परिजन सहू वली रे, कोई सखाई न थाय रे ।।प्र०।।१४।। एक प्रातमा माहरो रे, ज्ञानदिक गुणवंत । बाह्य योग सहुअवर छ रे, पाम्या वार अनंत रे ।।प्रा०।१५।। करकंडू, नमि, निग्गइ रे, दुमुह, प्रमुख ऋषिराय । मृगा पुत्र, हरिकेश ना रे, बंदु हुं नित पाय रे ॥प्रा०॥१६॥ साधु चिलाती सुतभलो रे, वली अनाथी तेम । इम मुनि गुण अनुमोदतां रे, देवचंद्र सुख क्षेम रे ।।प्रा०॥१७।।
___ ढाल पंचवीं तत्त्वभावना की
(इण परि चंचल आउखौ जीव जागौरी-ए देशी ) चेतन ए तन कारमो तुम ध्यावो री, शुद्ध निरंजन देव । भविक तुम ध्यावो री, सुद्ध सरुप अनूप ।।भ०॥यांकणी॥१॥ नरभव श्रावक कुल लह्यो तु० लीधो समकित सार ।भ०।। जिन आगम रुचि सुसुरणो तु. आलस निंद निवार ।।भ०॥२॥ पाठान्तर-- . ४सोग अवसर वारइ
५-सहायक ६-मूर्ख
१-इन्द्र २-चक्रवती ३-वासुदेव ४-बलदेव ८-प्रनित्य २ तेजम और कार्मरण के बंधन बिना
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