________________
१८९
जादव पति परिवारे परिवरयो रे, नेमि चरणे पुहतो गज सुकुमाल रे । मात पिता प्रिते वहोरावता रे, नंदन बाल मनोहर चाल रे ।ध०।२७। प्रभु मुखे सख'-विरति अंगीकरी रे, मूकी सख अनादि उपाधि रे। पूछे स्वामी कहो किम नीपजे रे, मुझने वहली सिद्ध समाधि रे ।ध०।२८। प्रभु भाखें निज सत्वे एकता रे, उदय अव्यापकता परिणाम रे । संवर वृद्धे वाधे निर्जरा रे, लघु काले लहिये शिवधामरे ।ध०।।२६।। एक रात्रि पडिमा तुम्हे प्रादरो रे, धरजो प्रातम भावः सुधीर रे । समता सिंधु मुनिवर तिम करे रे, सिवपद साधवा वड़ बीर रे ।ध०।३०। सिर ऊपर सगडी सोमिलें करी रे, समता सीतल गज सुकुमाल रे । क्षमा नीरें नवराव्यो प्रातमारे, स्यु दाझे छे तेहनो नहीं ख्यालरोध.।३१। दहन धर्म ते दाझे अगणि थी रे, हुंतो परम प्रदाह्य अग्रह्य रे । जे दाझे छे तेह महारु नहीं रे, अक्षय चिनमय तत्व प्रवाह रे ।ध०।३२॥ क्षपक -सेणि ध्याने पारोहिने रे, पुद्गल आतमनो भिन्न भाव रे । निजगुण अनुभव वलि एकाग्रता रे, भजतां कीधो कर्म अभाव रेंध.।३३।
-
१-सर्वविरति-साधु धर्म। २-एक रात का अभिग्रह धारण करो ३-जो जलने के स्वभाव वाली है, वह आग से जलता है, में तो आदाह्य हैं। ४-क्षपक श्रेरिण द्वारा ध्यान में चढ़ते हुए, आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हुए। ४-अपने गुरणों की रमणता से कर्मों का अभाव किया।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org