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[ तेनीस ]
ते गुरूनी वाणी सुणी हरख्यो चित कुमार ।
निरधार ॥
ज्ञान अभ्यास करू हवे, तुम पासे इंगित आकारे करी, जारणी ते कीधो तेनो छात्र ॥
सुपात्र ।
ज्ञान अभ्यास कराववा
श्री उत्तम विजयजी ने श्रीमद् के पास भगवती सूत्र का अध्ययन किया तथा सर्व ग्रागमों की अनुज्ञा भो उनमे प्राप्त की थी । देखिये इसे पद्म विजयजी के शब्दों में
भावनगर प्रादेशे रह्या, ते डाव्या देवचन्द्रजी ने,
भविहित करे मारालाल । हवे श्रादरे मारालाल ।
वांचे श्री देवचन्द्रजी पासे,
भगवती मारा लाल । देवचन्द्रजी मारालाल ।
सर्व आगमनी प्रज्ञा दीधी,
जागी योग्य तथा गुरण गरगना वृन्दजी मारा लाल ।
(जै. रा. मा. श्री उत्तम विजयजी निर्वाण रास पृ० १६३ ।
श्रीमद् और उनके विद्यार्थियों के बीच वात्सल्यमूर्ति गुरू और कृपाकांक्षी शिष्य के संबंध थे । विवेकविजय जी ने श्रीमद् के पास अध्ययन किया था, इसका वर्णन करते हुए कवियरण कहते हैं ।
'तपगच्छ मांहे विनीत विचक्षण श्री विवेकविजय मुनीद्र । भगवा उद्यम करता विनयी घणु उद्यमे भरावे देवचन्द्र ।। गुरूसदृश मन जाणे 'विवेकजी' खिदमत में निसदिन्न ।
विनयादिक गुरण श्री गुरू देखीने, विवेकजी उपर मन्न ॥
धन्य है, उन विद्यादाता गुरू को और धन्य है उन भाग्यशाली मुनिवरों को जिन्होंने गच्छ भेद को नगण्यकर श्रुतदेवी के सच्चे उप मक होने का परिचय दिया श्रीमद् का यह अपूर्व विद्यादान यदि इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाये तो मानसमर्पित उन मुनिवरों का नामोल्लेख भी उतने ही ग्रादरपूर्वक होना चाहिये;
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