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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
तुर्थ ध्यान ध्यावत समै किये करम सब छीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ।।११।। देवचंद्र बावै सदा, यह मुनिवर गुनबीन । चक्रवति ते अधिक सुखी मुनिवर चारित लीन ॥१२।।
मोह परिवार सज्झाय वाणी ए जिनवर तणी साची करी सदीव । सुज्ञानी जीव माया ममता वसि भम, भव मांहि अनंता जीव ।।सु०॥१॥ तजो तजो रे महीपति मोह में, साथें जसु परिवार।।सु०॥प्रां०।। मोह महीपति आकरौ, मन मंत्री बुद्धि निधान ।।सु०।। मन नारी प्यारी खरी, पर'वृत्ति प्रारंभ निदान ।।सु०॥त०॥२॥ नगर' अविद्या नाम छ, गढ' विषम अभंग अज्ञान ।सु०॥ दरवाजा चौगति तणां, तृष्णा खाँहि परधान ।।सु०॥त० ।।३।। यौवन वर तरु वर जिहां, नारि सुख भोग विलांस ।।सु०॥ क्रीडा गिरज गजावताँ, दोय लोक विरुद्ध प्राचार ।।सु०॥त०॥४॥ मोह नृपति वलि पातमा, श्रावास कुवासन गेह ।।सु०॥ चोरासी लख जोनि में, भमतां धरीया बहु देह ।।सु०॥त०॥५।
१-मन मोहराजा का मंत्री है, और परभाव में रमणता मन मन्त्री की स्त्री है। २-अविद्या नगरी है ३-प्रज्ञानरूपी किला है। ४-चारगतिरूप, किले के चार दरवाजे हैं। ५-तृष्णारूप खाई है ६-कुवासनामों से भरपूर प्रात्मा उसका घर है।
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