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[अड़सठ ] श्रीमद् की 'बीपी' के एक स्तवन पर पंडित सुखलालजी ने अनुवाद लिखा है, जो काशी से प्रकाशित हुआ था। - इनके अतिरिक्त यदि किसी को श्रीमद् की किसी कृति पर, अनुवाद या विवेचन उपलब्ध हो तो कृपया, अवश्य सूचित करें। श्रीमद् को भाषा-शैली
राजस्थानी तो आपकी मातृ-भाषा हो थी। संस्कृत-प्राकृत में आपने पाण्डित्य हासिल किया था। अन्य भाषाओं का ज्ञान तो जैसे-जैसे आपका भ्रमण क्षेत्र विस्तृत होता गया वैसे-वैसे बढ़ता गया तथा रचनाओं में उन को स्थान मिलता
गया ।
1. श्रीमद् की र नामों को भाषा की कसौटी पर कसने से पहिले एक बात ध्यान में रखना अत्यावश्यक है, तभी उनके प्रति न्याय किया जा सकता है। श्रीमद् केवल लेखक या कवि ही नहीं थे । वे अध्यात्मज्ञानी सन्त थे। अतः रचना करने का उनका ध्येय पाण्डित्य-प्रदर्शन का या मात्र वाह....वाह लेने का नहीं था किन्तु साधारण लोग भी तत्त्वज्ञान में रस ले सकें, इमलिये उसे सरल से सरल रूप मे प्रस्तुत करने का था। यही कारण है कि संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी आपने कुछ रचनाओं को छोड़कर सभी रचनायें भाषा में की।
, आपकी संस्कृत और प्राकृत छोटे-छोटे वाक्यों और प्रायः समास रहित छोटे २ पदों के कारण बड़ी सरल है । अनर्थक अलंकरण और पांडित्य प्रदर्शन के झूठे मोह में भावों की गरिमा कम करने को कहीं भी कोशिश नहीं की गई।
___ भाषा-ग्रन्थों में, आपकी पूर्ववर्ती रचनायें तो राजस्थानी या पुरानी हिन्दी में हैं किन्तु परवर्ती रचनायें गुजरातो में या गुजराती-बहुल है। कारण १७७७ से अन्तिम समय तक अर्थात् ३३-३४ वर्ष के दीर्घकाल तक आप गुजरात में ही विचरते
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