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पंचम खण्ड
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शुद्ध सिद्ध निज तत्वता रे. पूर्णानंद समाज । देवचंद्र पद साधता रे, नमीइं ते मुनीराज रे ।मु०।।१२।।
सप्तम वचनगुप्ति सज्झाय
(ढाल-सुमति सदा दिल मां धरो) अचन गुप्ति सुधी धरो, वचन ते करम' सहाय सलूणे । उदयाश्रित जे चेतना, निश्चय तेह अपाय सलूणे ॥३०॥१॥ वचन अगोचर प्रातमा, सिद्ध ते वचनातीत सलूणे । सत्ता अस्ति स्वभाव में, भाषक भाव अनीत सलूणे ॥३०॥२॥ अनुभव रस आस्वादता, करता आतम ध्यान सलूणे । वचन ते बाधक भाव छे, न वदें मुनिय निदान सलूणे।।व०॥३।। वचनाश्रव' पलटाववा, मुनि साधे स्वाध्याय सलणे । तेह सर्वथा गोपवें, परम महारस थाय सलूणे ॥व०॥४॥ भाषा पुद्गल वरगणा, ग्रहण निसर्ग उपाधि ।।स०॥ करवा पातम विरज ने, स्याने प्रेरे साधु स० ॥व०॥५॥ यावत' वीरज चेतना, प्रातम गुण संपत्त स० तावत संवर निर्जरा, आश्रव पर प्रायत्त स० ॥व०॥६॥
१-कर्म बंधन के कारण २-वचनरुपी आश्वव को रोकने के लिये स्वाध्याय पूर्ण उपाय है। यदि वचनाश्वव को सर्वथा रोकले तो प्रात्मानंद प्राप्त हो जाय । १-जवतक चेतना प्रातम गुणों को प्रेरणा देती, तब तक संवर और निर्जरा है। .
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