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श्रीमद् देवचन्द्र पछ पीयूष
मेघ मुनी ने राखीयो रे हां, राख्यो सोमल वृद । मे० । खंदक शिव पमुहा तरथा रे हां, तार्यो चरम सुरिंद ।।मे०।१२।। हुँ सोहमपति वीनवु रे हां, दया करो मुझ देव । मे० । सदा हजूरी दासनी रे हां, मानो विनति सेव ॥मे०।।१३।। नित्य मनोरथ नव नवा रे हां, करता प्रभु अवलंब । मे० । ते दिशि दाखो सर्व ने रे हां, प्रभुजी ज्ञान कदंब ।।मे० ।।१४।। एह श्रमरण श्रमणी भणी रे हां, निज पाराधक भाव । मे० । केहनें पूछि पालोयस्य रे हां, अंतरगत परभाव -।।मे०॥१५।। भव्य अभव्य निर्धारिता रे हां, पूछीस्यै कौण पास । मे० । आश्रव पीड़ित जीवनी रे हां, कुरण सुरणस्यै अरदास ॥मे०॥१६॥ ते सवि मन माहे रही रे हां, चाल्यो तारक सिद्धि । मे० । प्राणा प्रालंबन करी रे हां, करवी कार्य समृद्धि ॥मे०।।१७।। तो पिण एहना नामनी रे हां, राखौ मोटी आस । मे० । देवचंद नी सेवना रे हां, शिव सुख कारण खास ॥मे०॥१८॥
॥हा॥ इम दुख भरि इंद्रादिके, विमन चित्त मुख दीन । कलस विधे नव राविया, चित्त भक्ति लय लीन ॥१॥ करी विलेपन अति सुरभि, बहु विध फूल नी माल । भाभरणादि अलंकरया, श्री जिन जगत दयाल ॥२॥
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