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पंचम खण्ड
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सांभली मुनि अति हरखीयो, धन धन ए गुरु राजो रे । वीतराग उपगारोया, कृपा करी मुझ प्राजो रे ॥ध०।।१६।। साध्य अधूरे कुरण करै, ए ग्राहार असारो रे । पुद्गल जग* नी अथठ ए, किम ले मुनि सुविचारो रे। ध०।।२०।। साधन वधते पादरे, ए साधक विवहारो रे । ... निःकारण' पर वस्तु ने, छीपें नहीं अरणगारो रे ।।३०।।२१।। इम चीतवि सुद्ध थंडिले, परठवता ते पिंडों रे । पुद्गल संग नी निंदना. निज गुण रमण प्रचंडो रे ।।ध ० ।।२२।। पर परणति विछेदता, निज परणति प्रागनावो रे । क्षपक श्रेणि ध्याने रम्यां, पाम्यो यात्म स्वभावो रे ॥१०॥२३॥ प्रातम तत्त्व एकाग्रता, तन्मय वीरज धारो रे । धन घाती सवि खेरव्या, रतनत्रयी विसतारो रे ।।१०।२४।। क्षीण मोह करि चरगा नी, क्षायकता करि पूरी रे । केवल ज्ञान दंसण वर्या, अंतगय सवि चूरी रे ॥ध०।।२५।। परमदान लाभ नीपनो,' कीधो कारज सूधो रे । समवशरण में प्रावीया, साध्य संपूरण सीधो रे ।।ध०।।२६।। एहवा मुनि ने गाईये, ध्याईये धरि प्रागंदो रे ।
देवचंद्र पद पाईये, लहीय परमानंदो रे ।ध० ।।२१।। पाठान्तर- * जड़ ऐंठ
१-साधु बिना कारण पर वस्तु को हुए तक नहीं।
ई-प्राप्त हया ।
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