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पंचम खण्ड
आतम तत्त्व अनंतता जी, ज्ञान विना न जणाय । तेह प्रगट करवा भणी जी, श्रु त सिझाय उपाय ।।म०।।६।। तेह देह थी देह रहे जी, पाहारे बलवान । साध्य अधूरे हेतु ने जी, केम तजे गुणवान म०।।७।। तनु अनुयायी वीर्य नो जी, वरतन अमन संयोग । वृद्ध' यष्टि सम जाणि ने जी, असनादिक उपभोग ।।म०॥८॥ जां साधकता नवि अडें जी, तां न ग्रहें प्राहार । बाधक परिणति वारवा जी, असनादिक उपचार ।।म।६।। सडतालीसे द्रव्यना जी, दोष तजी नीराग । . असंभ्रांति मूर्छा विना जी, भ्रमर परें वड़ भाग ।।म०॥१०।। तत्व रुची तत्वाश्रयी जी, तत्वरसी निग्रंथ । कर्म उदें आहारता जी, मुनि माने पलि मंथ' ।।म०।।११।। लाभ थकी पिण अणलहें जी, अति निर्जरा करत । पाम्ये अण व्यापक पणें जी, निरमम संत महंत ।।म० ।।१२।। अनाहारता साधता जी, समता अमृत कंद । भिक्ष श्रमण वाचंयमी' जी, ते वंदे देवचंद ।।म०।१३।।
१-जैसे बुड्ड को लकड़ी का सहारा है, वैसे-साध्यसिद्धि में कारणभूत शरीर के लिये आहारादि आवश्यक है। २-दोष ३-मुनि
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