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गुजरात की शोर
[ अठारह ]
विद्वत्त्व ं च नृपत्व च, नेव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यत राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते ॥
विद्वत्ता, संयमनिष्ठा. अध्यात्मरसिकता एवं प्रवचनपटुता के कारण आपकी कति दूर दूर तक फैल गई थीं, अतः स्थान-स्थान के श्री संघ आकर अपने गांवों और 'नगरों मैं पधारने की आपसे सविनय प्रार्थना करने लगे । गुजरात भी उस ज्ञान-गंगा से अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाने में, कैसे पीछे रहता ? अतः वहां का
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भी अत्याग्रह । श्रीमद् के गुजरात प्रवास के पीछे एक खास बात यह भी रही कि संघ के आग्रह के साथ एक गुणानुरागी सद्धदय - साधु पुरुष का भी नम्र आग्रह था। वे साधु पुरूष थे तपागच्छीय मुनि श्री क्षमाविजय जी ।
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संवत १७७७ में श्रीमद् के गुजरात की ओर विहार किया । इस प्रवास को आपने तीर्थ यात्रा एवं धर्म प्रचार का माध्यम बनाकर अनेक धर्म प्रभावना के कार्य किए। जहां जहां वे तीर्थो में गये वहां वहां नवीन स्तव-स्तुतियों द्वारा मुक्त हृदय 'से भक्ति करते हुए उसे चिरस्मरणीय बनाया । विचरण करते हुए प समाज में तो ज्ञान का प्रचार किया ही, साथ ही राजकीय अधिकारियों में भी मुक्त रूप से हिंसा धर्म का प्रचार किया। उनमें से कई तो श्रापके परम भक्त बन गये
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सर्व प्रथम श्रीमद् गुजरात के पाटनगर पाटण में पधारे। पुण्य पुरुष कहीं भी
पधारे सर्वत्र प्रानन्द ही श्रानन्द छा जाता है “ पदे पदे निधानानि" । इस राजस्थानी
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“सन्त की प्रवचन पटुता एवं मधुरवाणी ने पाटणवासियों को मन्त्र मुग्ध कर दिया । उनके जीवन और उपदेशों में न तो ग्रह भाव था, न ममत्व, किन्तु समभाव का ही
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अमृत करता था । अतः, उसका पान करने के लिए लोग हजारों की तादाद में उनके ब्याख्यानों में प्राते थे और जीवन की समस्याओं का सही समाध
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