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श्रीमद् देवचन्द्र पद्य पीयूष
पंचम समिति कही अति सुदरु रे, पारिठावणी नाम । परम अहिंसक धर्म वधारणी रे, मृदु करुणा परिणाम ॥१॥ मुनिवर सेवज्यो रे समिति सदा सुखदाय ।ए प्रांकणी। थिरता भावें संयम सोहियें रे, निरमल संवर थाय ।।मु०॥२।। देह नेह थी चंचलता वधे रे, विकसें दुष्ट कषाय । तिण तनुराग तजी ध्यान रमें रे, ज्ञान चरण सुपसाय ।।मु०॥३॥ जिहां शरीर तिहां मल उपजे रे, तेह तणो परिहार । करें' जंतु चर थिर अरण दूहव्ये रे, सकल दुगंछा वार ।।१०।।४।। संयम बाधक प्रातम विराधना रे, प्राणा घातक जांरिण। उपधि प्रशन शिष्यादिक परठवें रे, आयति लाभ पिछांणि।।मु०॥५॥ वधे आहारें तपीया परठवें रे, निज कोठे अप्रमाद । देह अरागी भात अव्यापता रे, धीर नो ए अपवाद ।।मु०॥६।। संलोकादिक' दूषण परिहरी रे, वरजी राग ने द्वष ।
आगम रीते परिठवणा करें रें, लाघव हेतु विशेष ।।मु०॥७।। कल्पातीत अहा लंदी क्षमी रे, जिनकलपादि मुनीस। तेहनें परिठवरणा इक मल तणी रे, तेह अल्पवलि दीस ।।मु०॥८।।
१-त्रस और स्थावर जीवों की विराधना टालते हुए। २-भावी लाभ ३-जहां किसी का आना जाना न हो, न किसी की दृष्टि पड़ती हो ऐसी स्थण्डिल भूमि में, राग-छेष रहित हो, आहारादि को परठे।
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