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. [ तरेसह 'एश्यो हित जाणो तुमे, एथी नवि मिद्धि रे लो।
विषय हलाहल विष जिहां, शो अमृत बुद्धि रे लो।'
प्रभंजना की आत्मा आसन्नभावी है। अतः वह साध्वीजी की बातों का मर्म बड़ी गम्भीरता से जानने में लीन है। यही कारण है कि सखी के यह कहने पर कि"अभी तो जो सोचा है, वह करो। बाद में धर्म की बात सोचना।" प्रभंजना झट से कह देती है कि--
'प्रभंजना कहे हे सखी, ए कायर प्राणी रे लो।
धर्म प्रथम करवो सदा, 'देवचन्द्र' नी वाणी रे लो। चतुर साध्वीजी भी अपने कथन का प्रभंजना के दिल में असर होता देखकर उसे संसार की असारता, संबंधों को अनित्यता और प्रात्मा की नित्यता बताती हैं। इससे प्रभंजना की सुप्त चेतना एकदम जाम उठती है।
"प्रायो प्रायो रे अनुभव आत्तमचो प्रायो ।"
शुद्धि निमित्त अवलंबन भजतां, आत्मालंबन पायो रे ।। ज्ञानधारा में आगे बढ़ते-बढ़ते अन्त में उसे कवल ज्ञान हो जाता है । हजार सखियां भी वहां ही दीक्षित हो जाती हैं। सारा वर्णन तत्त्वज्ञान से भरपूर होने के साथ-साथ बड़ा सजीव है । सज्झाय-पाठक अध्यात्म रस के प्रास्वादन के साथ दृश्य का साक्षात्कार भी करता जाता हैं।
१५. साधुपद स्वाध्याय--
इस शीर्षकवाली दो सज्झाये हैं। एक तो 'जगत् में सदा सुखी मुनिराज और दूसरी 'साधक साधज्यो रे' है। इसमें श्रीमद् ने साधु को ऋजुता और समता की साधना से निस्पृह, निर्भय, निर्मम और पवित्र बनकर आत्म साम्राज्य (मोक्ष)
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