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[चौहत्तर] बकरी के टोले में पला हुआ सिंह शावक अपने स्वरूप को भूल जाता है। किन्तु अपने सजातीय सिंह को देखने से उसे पुनः निज रूप का भान हो पाता है। उसी प्रकार प्रभु भक्ति से भव्य जीव भी अपनी विस्मृत आत्म शक्ति को पहिचान कर प्राप्त कर लेता है। यहां प्रात्म शक्ति की स्मृति में, प्रभु भक्ति के औचित्य के साधक भ्रान्त सिंह शावक का दृष्टान्त कितना उपयुक्त है।
संवादों के द्वारा रूपक जैसा आनन्द प्रस्तुत करने में श्रीमद् सिद्धहस्त हैं। आपको प्रभंजना, गजसुकुमाल आदि की सज्झायें इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।
अनुप्रास का प्रयोग सर्वत्र स्वाभाविक गति से, संगीतात्मकता का वातावरण उत्पन्न करते हैं। कलापक्ष की अपेक्षा आपका भावपक्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तत्वज्ञान के बीच बीच सुन्दर कोमल भाव तरंगों का स्पन्दन हृदय को प्राहलादित कर देता है। आपकी रचनाओं में अर्थगौरव की विशेषता है। वे पाठकों के मानस-पटल पर उन विचारों को अंकित कर देना चाहते थे, जिनसे वह साधारण मानव की तुच्छ-प्रवृत्तियों से परे हो जाय और उसे स्वयं अपने व्यक्तित्व को उदात्त बनाने की प्रेरणा प्राप्त हो।
श्रीमद् की कविता गंगाजल की तरह अस्खलित गति से बहती हई कहीं भाव या रस की धारा बहाती है तो कहीं प्रशांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मानव जीवन की विश्रांति की छाया दिखाती है । सचमुच आपकी कविता में हृदय की सच्ची स्वाभाविक प्रेरणा भरी पड़ी है। आपकी वाणी आपके व्यक्तित्व की गरिमा से ओतप्रोत है। श्रीमद् की भक्त दशा
श्रीमद् उच्चकोटि के परमात्मभक्त महात्मा थे। आपने अपने स्तवनों में भक्तिरस को खूब बहाया। किन्तु श्रीमद् की भक्त दशा पर विचार करने से पूर्व
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