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[अठहत्तर ] "तुज सरिखो साहेब मल्यो, भांजे भव-भ्रम टेव लाल रे ।
पुष्टालंबन प्रभु लही, कोण करे, पर सेव लाल रे ॥ श्रीमद् में आत्म-लघुत्ता का भाव कूट कूट कर भरा है। वे अपने दोषोंअवगुणों को बिना किसी हिचकिचाहट के प्रभु के सम्मुख स्वीकार करते हैं तथा अपने उद्धार के लिये प्रमु से, बड़े ही मार्मिक शब्दों में विनम्र प्रार्थना करते हैं।
तार हो तार प्रभु मुज सेवक भरणी, जगतमां, एटलु सुजस लीजे । दास-अवगुण भर्यो जारणी पोता तो, दयानिधि ! दीन पर दया कीजे ।।
'ताग्जो बापजी विरूद निज , राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो।"
॥ महावीर स्तवन । प्रभु के प्रति भक्त-कवि का प्रेम कितना सहज है-- __ "है इन्द्र चन्द्र नरेन्द्र नो, पद न मांगु तिलमात ।
मांगु प्रभु मुज मन थकी, न वीसरो क्षणमात्र ॥" प्रभु के प्रति उनका अनन्य प्रेमानुराग कभी-कभी उन्हें दर्शन के लिये उत्कंठित कर देता है, काश ! उनके तन में पांख और चित्त में प्रांख होती !
. . "होवत जो तनु पांखड़ी, आवत नाथ हजूर लाल रे।
जो होती चित्त प्रांखड़ी, देखरण नित्य प्रभु नूर लाल रे ॥
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