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________________ १३८ ] समकित सज्झाय समकित नवि लह्यो रे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहि । त्रस थावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो ।। तीन काल सामाइक करतां, शुद्ध उपयोग न साध्यो || स०|| १ || झूठ बोलवा को व्रत लीनो, चोरी को परण त्यागी । व्यवहारादिक निपुरण भयो पण, अंतरदृष्टि न जागी || स० || २ || उर्ध्व भुजा कर उँधो लटके, भस्म लगाइ धूम घट के । जटा जूट शिर मुंडे जुठो विरण श्रद्धा भव भटके ||०||३|| निज पर नारी त्याग ज करके, ब्रह्मचर्य व्रत लीधो' । स्वर्गादिक याको फल पाइ, निज कारज नवि सीधो || स०||४|| 1 बाह्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्य लिंग धर लीनो । देवचंद्र कहे या विधे तो हम बहुत वार कर लीनो || उपदेश--पद (राग-धन्याश्री) मेरे जीव क्या' मन में तू चिते । इक प्रावत इक जात निरंतर इस संसार अनंते ॥ ० ॥ १ ॥ १ली. २-सीनो श्री देवचन्द्र पद्म पीयू करम कठोर करे जिउ भारी पर त्रियधन निरखते । 1 जनम मरख दुख देखइ बहूले, चमइ, मांहि भमंते ॥ | ० ||२|| Jain Educationa International ३- जीव ॐ-परस्त्री For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003830
Book TitleShrimad Devchand Padya Piyush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji, Sohanraj Bhansali
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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