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समकित सज्झाय
समकित नवि लह्यो रे, ए तो रुल्यो चतुर्गति मांहि । त्रस थावर की करुणा कीनी, जीव न एक विराध्यो ।। तीन काल सामाइक करतां, शुद्ध उपयोग न साध्यो || स०|| १ || झूठ बोलवा को व्रत लीनो, चोरी को परण त्यागी । व्यवहारादिक निपुरण भयो पण, अंतरदृष्टि न जागी || स० || २ || उर्ध्व भुजा कर उँधो लटके, भस्म लगाइ धूम घट के । जटा जूट शिर मुंडे जुठो विरण श्रद्धा भव भटके ||०||३|| निज पर नारी त्याग ज करके, ब्रह्मचर्य व्रत लीधो' ।
स्वर्गादिक याको फल पाइ, निज कारज नवि सीधो || स०||४||
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बाह्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्य लिंग धर लीनो ।
देवचंद्र कहे या विधे तो हम बहुत वार कर लीनो ||
उपदेश--पद
(राग-धन्याश्री)
मेरे जीव क्या' मन में तू चिते ।
इक प्रावत इक जात निरंतर इस संसार अनंते ॥ ० ॥ १ ॥
१ली. २-सीनो
श्री देवचन्द्र पद्म पीयू
करम कठोर करे जिउ भारी पर त्रियधन निरखते ।
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जनम मरख दुख देखइ बहूले, चमइ, मांहि भमंते ॥ | ० ||२||
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३- जीव
ॐ-परस्त्री
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