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[ तीस. ] "संवत् अठारसे साते बरणे, फागुण सुदी, बीज दिवसे रे ।
श्री शांति जिणेसर हरषे थाप्या, बहुमुनि शिवसुख बरसे रे ॥"
ध्रांगध्रा में आपका सुखानंदजी के साथ सौहार्द पूर्ण मिलन हुआ। सुखानंद जी भी महान् आध्यात्मिक पुरूष थे, अतः श्रीमद् का उनके प्रति अच्छा आदरभाव
था।
संवत् १८०८ में आप पुनः पालीतारणा पधारे। तत्पश्चात् दो साल तक गुजरात के विभिन्न गांवों में विचरण करते रहे । १८१० में पुन: पालीताणा । १८११ में लींबड़ी में प्रतिष्ठा कराई । १८१२ का चातुर्मास राजनगर में किया।
संघ यात्रा
आपके सानिध्य में तीर्थराज शत्रुजय के तीन संघ निकलने का उल्लेख मिलता है। १. संवत् १८०४ में सूरत के संघवी शाह कचरा कीका ने शत्रुजय का संघ निकाला था, जिसका वर्णन स्वयं श्रीमद् ने अपने सिद्धाचल स्तवन में किया है । "संवत् अढ़ार चिड़ोत्तर वरसे सित मगसर तेरसीये श्री सूरत थी भक्ति हरख थी संघ सहित उल्लसीये ।।६।। कचरा कीका जिनवर भक्ति (गुणवंत) रूपचंद जीइए
श्री संघ ने प्रभुजी भेटाव्या, जगपति प्रथम जिणंद ।।७।। २. आपके उपदेश से १८०८ में गुजरात से संघ निकला था।
१-देवविलास और स्तवन में जो संवत् का अन्तर है, (१८०६-७) वह गुजराती और
राजस्थानी संवत् के कारण है ।
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