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________________ आचाराज्ञोपनिषद
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________________ XGOOO लोयस्स किं सारो? आयारो ME
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________________ सर्वलब्धिनिधान पञ्चमगणधर परमपूजनीयश्रीसुधर्मस्वामिभगवत्प्रणीत आचाराङ्गसूत्रसारसञ्चयरूपा आचाराझोपनिषद् . नवसर्जनम्-सम्पादनम् / प्राचीनश्रुतोद्धारक प.पू.आ.श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरशिष्याः प.पू.आ.श्रीकल्याणबोधिसूरीश्वराः ao ...प्रकाशक : 13 श्री जिनशासन आसधना ट्रस्ट
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________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુ-મ-જયઘોષસૂરિભ્યો નમઃ મૂળસૂત્ર : શ્રી આચારાંગસૂત્ર (પ્રથમ આગમ, ગ્રન્થાગ્ર 2644, ભાષા અર્ધમાગધી) અર્થાગમ : ચરમતીર્થપતિ કરુણાસાગર શ્રમણ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામી સૂત્રકાર : સર્વલબ્લિનિધાન પંચમગણધર શ્રી સુધર્મસ્વામી ભગવાન સંસ્કૃત સારસંચય : આચારાંગોપનિષ આલબન : મૂળ સૂત્ર અને અનેક ટીકાઓ સંચય + : પ્રાચીનકૃતોદ્ધારક આચાર્ય સંપાદન શ્રી હેમચંદ્રસૂરિ શિષ્ય આચાર્ય શ્રી કલ્યાણબોધિસૂરિ સહયોગ : મુનિરાજશ્રી ભાવપ્રેમ-તત્ત્વપ્રેમ રાજપ્રેમવિજયજી મ.સા. મુદ્રક : મલ્ટી ગ્રાફિક્સ www.multygraphics.com સને 2013 * પ્રથમ આવૃત્તિ * વિ.સં.૨૦૬૯ * વી.સં.રપ૩૯ પ્રતિ : 500 * 285/
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________________ No Copyright. * Reproduction Welcome. * પ્રાપ્તિસ્થાન " 1) શ્રી અક્ષયભાઈ શાહ 506, પદ્મ એપાર્ટ., જૈન દેરાસર સામે, સર્વોદયનગર, મુલુંડ (પ.), મુંબઈ-400 080. મો. 9594555505 Email : jinshasan 108@gmail.com 12) શ્રી ચંદ્રકાંતભાઈ સંઘવી 16-બી, અશોકા કોમ્પલેક્સ, જનતા અસ્પતાલ પાસે, પાટણ (ઉ.ગુ.) ફોન: 9909468572 (3) મલ્ટી ગ્રાફિક્સ 18, Vardhaman Bldg., 3rd Floor, Khotachi Wadi, Prarthana Samaj, V. P. Road, Mumbai - 4. Ph.: 23873222 | 23884222. E-mail : support@multygraphics.com પ્રસ્તુત પ્રકાશન જ્ઞાનનિધિમાંથી થયેલ છે. માટે ગૃહસ્થો જ્ઞાનનિધિમાં તેનું મૂલ્ય અર્પણ કરીને માલિકી કરી શકશે. Website : www.divine Knowledge.org.in
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________________ चरमतीर्थपतिः करुणासागरः श्रीमहावीरस्वामी RO MARURUIVATROwwwwww NRIALS અનરાધાર અનુગ્રહ HISTORICASSOMESS अनन्तलब्धिनिधानः श्रीगौतमस्वामी
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________________ , पञ्चमगणधरः श्रीसुधर्मास्वामी TI | જાની કૃપા વરસે અનરાધાર સિદ્ધાંતમહોદધિ સુવિશાલગચ્છસર્જક પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય પ્રેમસૂરીશ્વરજી મહારાજા વર્ધમાન તપોનિધિ ન્યાયવિશારદ પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મહારાજા અજોડ ગુસમર્પિત ગુણગણનિધિ પ. પૂ. પંન્યાસપ્રવર શ્રી પદ્મવિજયજી ગણિવર્ય સિદ્ધાંત દિવાકર પ. પૂ. ગચ્છાધિપતિ આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય જયઘોષસૂરીશ્વરજી મહારાજા - વૈરાગ્યદેશનાદક્ષ પ. પૂ. આચાર્યદેવ શ્રીમદ્વિજય હેમચન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજા
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________________ " સાર છે રૈલોક્યનો સાર છે આચારાંગસૂત્ર. એનો આ સારસંચય મૂળસૂત્ર અને ટીકાના અધ્યયન અને ધારણામાં ઉપયોગી થાય અને કર્મસંચયનો વિરેચક બને એ જ શુભાભિલાષા.
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________________ A. विषयानुक्रमः / / श्रुतस्कन्धः-अध्ययनम्-उद्देशकः।। // 1-1 // शस्त्रपरिजा / / 1-1-1 / / जीवास्तित्वम् / / 1-1-2 / / पृथ्वीकायः / / 1-1-3 / / अप्कायः / / 1-1-4 / / तेजस्कायः // 1-1-5 / / वनस्पतिकायः / / 1-1-6 / / त्रसकायः // 1-1-7 / / वायुकायः
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________________ // 1-2 / / लोकविजयः // 1-2-1 / / स्वजनविरागः // 1-2-2 / / संयमदाय॑म् // 1-2-3 / / निर्मानत्वम् // 1-2-4 / / भोगविरागः // 1-2-5 / / लोकनिश्रा / / 1-2-6 / / निर्ममत्वम् // 1-3 / / शीतोष्णीयम् // 1-3-1 / / भावनिद्रा / / 1-3-2 / / असंयमफलम् / / 1-3-3 / / श्रामण्यम् / / 1-3-4 / / मोक्षोपायः
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________________ // 1-4 / / सम्यक्त्व म् / / 1-4-1 / / सम्यग्वादः // 1-4-2 / / धर्मप्रवादः // 1-4-3 / / सत्तपः // 1-4-4 / / संयमः / / 1-5 / / लोकसारः // 1-5-1 // कूटमुनिः // 1-5-2 / / भावमुनि: // 1-5-3 / / साधुता // 1-5-4 / / एकाकिविहारदोषः // 1-5-5 / / आचार्यनिश्रा। // 1-5-6 / / जिनाज्ञाऽऽराधनम्
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________________ / / 1-6 / / धूतम् // 1-6-1 / / प्रमादः // 1-6-2 / / कर्मविनयः // 1-6-3 / / साधुसमाचारः / / 1-6-4 / / निर्वेदः / / 1-6-5 / / समता // 1-7 / / महापरिज़ा (सप्तोद्देशकयुतमिदमध्ययनं व्युच्छिन्नम्) // 1-8 / / विमोहः / / 1-8-1 / / कुशीलपरिहारः // 1-8-2 / / अकल्प्यत्यागः
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________________ / / 1-8-3 / / शीतबाधा / / 1-8-4 / / वस्त्रविषय आचारः / / 1-8-5 / / भक्तपरिज्ञा / / 1-8-6 / / इङ्गितमरणम् / / 1-8-7 / / पादपोपगमनम् // 1-8-8 / / मरणत्रयविधिः / / 1-9 / / उपधानश्रुतम् // 1-9-1 / / श्रीवीरप्रभुचर्या // 1-9-2 / / वसतिः // 1-9-3 / / परमतितिक्षा // 1-9-4 / / तपश्चर्या
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________________ // 2-1 / / पिण्डैषणा (एकादशोद्देशकाः) / / 2-2 / / शय्यैषणा (त्रय उद्देशकाः ) // 2-3 // इर्या (त्रय उद्देशकाः ) // 2-4 / / भाषाजातम् (द्वावुद्देशकौ) / / 2-5 / / वस्त्रैषणा (द्वावुद्देशकौ) // 2-6 / / पात्रैषणा (द्वावुद्देशकौ)
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________________ / / 2-7 / / अवग्रहप्रतिमा (द्वावुद्देशकौ) / / 2-8 / / स्थानसप्तिका // 2-9 / / निषीधिकासप्तिका // 2-10 / / उच्चारप्रस्रवणसप्तिका // 2-11 / / शब्दसप्तिका / / 2-12 / / रूपसप्तिका / / 2-13 / / परक्रियासप्तिका // 2-14 / / अन्योऽन्यक्रियासप्तिका // 2-15 / / भावना / / 2-16 / / विमुक्तिः
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________________ अथ आचाराङ्गोपनिषद्।
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________________ श्रीवर्द्धमानं जिनवर्द्धमानं, सूरीन्द्रमेवं गुरुहेमचन्द्रम् / प्रणम्य नम्यं प्रचिनोमि रम्यं, त्रैलोक्यसारं प्रथमाङ्गसारम् / / शस्त्रपरिजा जीवास्तित्वम् // 1-1-1 // इह हि परमकारुणिकः श्रीसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाह-श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् ! तेन भगवतैवमाख्यातम्-न भवत्यवगम एकेषां प्राणिनामिह संसारे, यथा पूर्वादितः कस्या दिशोऽहमागतोऽस्मि। स्वमत्या
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________________ (ase. AINA तीर्थकृदुपदेशेनान्यवचनश्रवणेन वा तदवगच्छति। यथा भवान्तरसङ्क्रान्तिभागस्ति मदात्मा। योऽमुष्या दिशोऽनुदिशश्च गतिप्रायोग्यकर्मोपादानादनुसञ्चरति, सर्वस्या दिशः सर्वस्याश्चानुदिशो य आगतोऽनुसञ्चरति सोऽहम्। यः प्रोक्तसङ्क्रान्त्यभिज्ञः स आत्मवादी लोकवादी कर्मवादी क्रियावादी च भवति, परमार्थतस्तत्तदात्मादितत्त्वं वदतीति। स एवाहं येन मयाऽस्य देहादेः
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________________ पूर्वं यौवनावस्थायामिन्द्रियवशगेन तत्तदकार्यानुष्ठानपरायणेनाऽऽनुकूल्यमनुष्ठितम्, परोऽप्यकार्यादौ प्रवर्तमानो मया प्रवृत्तिं कारितः। तथा कुर्वन्तमन्यमनुज्ञातवान्। एवमेव वर्तमानापेक्षयानागतकालापेक्षया च। सर्वेऽप्येते कर्मसमारम्भा ज्ञातव्याः प्रत्याख्यातव्याश्च। अन्यथा दुनिर्वार उक्तोऽनुसञ्चारश्चतुरशीतियोनिलक्षबम्भ्रमणं दुःख-संयोगभागित्वं च। अतः सावधयोगेषु भगवता परिज्ञोदिता।
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________________ अस्यैव जीवितस्यार्थं प्रशंसा -सन्मानपूजनार्थं च प्रवर्त्तमाना जातिमरणमोचनार्थं च क्रियासु प्रवर्त्तमानाः प्राणिनः कर्म आददते। परिज्ञातव्याश्चैते सर्वेऽपि कर्मसमारम्भा एवमेव मुनिभावसम्भवादिति। पृथ्वीकायः // 1-1-2 // आर्तो लोको निस्सारो दुस्सम्बोधो विशिष्टबोधरहितश्च। विषयकषायादिभिरातुरा जीवाः प्रकर्षेण व्यथिते पृथ्वीकायलोके तेषु तेषु कृष्यादिकार्ये
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________________ षूत्पन्नेषु पृथ्वीकायं समन्तात् पीडयन्ति। पृथ्व्याश्रिता जीवा पृथग्भावेन सन्ति। संयमानुष्ठानपरास्तु मुनयः पृथिवीकायसमारम्भरूपादसंयमानुष्ठानाल्ल किल वयमनगारा इति वदन्तो नानाप्रकारैः शस्त्रैः पृथ्व्याश्रितं कर्म समारभमाणा पृथ्वीजीवान् तदाश्रितोदकादिजीवांश्च तायाबोधिलाभाय च। एतज्जानानः सम्यग्दर्शनादिकमभ्युपगम्य, भगवतोऽनगाराणां वा समीपे
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________________ श्रुत्वा जानाति, यथा पृथ्वीशस्त्रसमारम्भ एवाष्टप्रकारकर्मबन्धः। एष एव मोहः तद्धेतुत्वात्। एष एव मारः, मृत्युयोनित्वात्। एष एव नरकश्च, तत्कारणत्वयोगात्। तथाप्याहाराद्यर्थमत्र गृद्धो लोकः। न च कथमेतेषां वेदनेत्यारेका कर्त्तव्या, यथा पञ्चेन्द्रियप्राणिनामन्धानां वा पादादिभेदने क्रियमाणे तेषां वेदनोपजायते, तथैव पृथ्वीजीवानामप्यव्यक्ता भवति वेदना। अतः परिज्ञातव्या कृत-कारिता-नुमतिभिः पृथ्वीपीडा, अन्यथा मौनानुपपत्तेरिति।
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________________ अप्कायः॥१-१-३॥ अशेषसंयमानुष्ठायी रत्नत्रयीप्रतिपन्नोऽनिगूहितबलवीर्यो हि सम्पूर्णोऽनगारः। स च यया श्रद्धया प्रव्रज्यां गृहीतवान्, तामेव श्रद्धामश्रान्तो यावज्जीवमनुपालयेत्, त्यजेच्च शङ्काम्। यत उत्तमपुरुषप्रहतोऽयं मार्गः। जिनाज्ञयाऽप्कायलोकं सम्यगवगम्य संयममनुपालयेत्। न चाप्कायजीवत्वमपलपेत्, नाप्यात्मानमपलपेत्, एकापलापस्यापरापलापहेतुत्वात्, अनेकदोषानुषङ्गाच्च।
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________________ न च जलजीवपीडने हिंसैव, अपि तु चौर्यमपि, अदत्तत्वात्तजीवैः स्वशरीराणाम्। अनान्यदपि पृथ्वीसमारम्भपरिज्ञावत् परिज्ञातव्यम्, एवमेवानगारत्वसिद्धेरिति। तेजस्कायः // 1-1-4 // यो हि षट्कायमहाशस्त्रस्याग्निकायस्य विषये निपुणः, स संयमस्य विषये निपुणः। सदा संयतैरप्रमत्तैश्च तीर्थकृदादिभिरिदमग्निस्वरूपं संयमस्वरूपं च दृष्टम्। प्रमत्तो रन्धनादिप्रयोजन
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________________ श्चाग्निकायदण्डः, तद्दण्डहेतुत्वात्। अतः पृथ्वी-तृण-पत्र-काष्ठ -गोमयकचवरादिनिश्रितजीवरक्षार्थं मक्षिकादिसम्पातिमप्राणिरक्षार्थं च परिज्ञातव्योऽग्निसमारम्भः, इत्थमेव श्रामण्योपपत्तेरिति। शिष्टं पृथ्वीगमेन नेयम्। वनस्पतिकायः // 1-1-5 // वनस्पतिदुःखं नो करिष्ये, न कारयिष्ये, नानुमंस्ये चेति प्रव्रज्यां प्रतिपद्य जीवान् यथावद् ज्ञात्वा संयमं च विदित्वा न कुर्याद् वनस्पत्यारम्भम्। एवमेतदुपरतः परमार्थतो जैनेन्द्रे प्रवचन
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________________ एव। एष चानगार इत्युच्यते, नान्यः, अतिप्रसङ्गादिति। यः शब्दादिको गुणः, स एव संसारः। शब्दादिषु रागादिं कुर्वाणो न जिनाज्ञानुसारी। स च पुनः पुनस्तानास्वादयति। वक्रसमाचारश्चायम्, नरकादिगत्याभिमुख्यप्रवणत्वात्। एवं च प्रमत्तोऽसौ गृहमावसति। अतः पृथ्वीवद्वनस्पतिपरिज्ञाऽपि कर्तव्या। जातिवृद्ध्यादिसाधादस्मच्छरीरवद्वनस्पतिशरीरमपि सजीवत्वेन सिद्धम्। अतः परिज्ञातव्यस्तत्समारम्भो वतिनेति।
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________________ त्रसकायः // 1-1-6 // सन्ति त्रसजीवाः, तद्यथा-अण्डजाः पोतजा जरायुजा रसजा संस्वेदजा सम्मूर्च्छनजा उद्भिजा उपपातजाश्च। एष संसार उच्यते, स च मन्दस्याविजानतो भवति। एनं त्रसकायं चिन्तयित्वा यथावदुपलभ्य च ज्ञातव्यं यथा प्रत्येकसुखभाजः प्रत्येकदुःखभाजश्च सर्वे जीवाः। समन्ताच्छरीरमन:पीडाकरं महाभयं च दुःखं सर्वेषाम्। अतः पृथ्वीपरिज्ञावत् त्रसकायपरिज्ञाऽपि नेतव्या।
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________________ घ्नन्ति केचन त्रसजीवान् चर्म-मांसशोणिताद्यर्थम्। ते चापरिज्ञाताऽऽरम्भाः। न चैवं भाव्यं श्रमणभावाभिलाषिणेति। वायुकायः।।१-१-७॥ अवश्यं शारीरमानसोभयदुःखमनिवृत्तवायुकायसमारम्भे मय्यापततीत्येवमातङ्कदर्शी ममैतदहितमिति ज्ञात्वैतन्निवर्तने प्रभुर्भवति। यो ह्यात्मानमधिकृत्य वर्तमानं सुखदुःखादि जानाति, स बहिरपि प्राणिगणं वायुकायादिकं जानाति, तज्जानानश्चा
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________________ ध्यात्ममपि जानाति। अतो यथात्मानं सर्वथा सुखाभिलाषितया रक्षसि तथा परमपि रक्षेत्येवं तुलामन्वेषयेत्। इह रत्नत्रयीप्रतिपन्ना रागादिमुक्ता वायुजीवोपमर्दैन जीवितुं नाभिलषन्ति। अतः पृथ्वीपरिज्ञावत्तत्समारम्भमपि परिजानीयात्साधुत्वसस्पृह इति। न चैकजीवनिकायविषय आरम्भः शेषजीवनिकायोपमर्दमन्तरेण शक्यते, अत एकस्मिन् जीवनिकाये वधप्रवृत्ताः शेषजीवनिकायवधजनि
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________________ तेन कर्मणा बध्यन्ते। ते चात्मानं संयमितया वदन्तोऽपि न रमन्ते ज्ञानाद्याचारे। ततश्च ते स्वच्छन्दतया विषयपरिभोगायत्तजीविताः सन्त आरम्भसक्ताः सङ्गं प्रकुर्वन्ति। अतः परिज्ञातकर्मा सम्यक्त्वादिधनसम्पन्नः सर्वावबोधविशेषानुगतेनात्मनाऽकार्योपादानाय न कुर्याद्यत्नम्। तत् परिज्ञाय मेधावी कृत-कारिताऽनुमतिभिः षट्कायसमारम्भं त्यजेत्, अन्यथा भावश्रामण्यानुपपत्तेरिति।
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________________ लोकविजयः स्वजनविरागः।।१-२-१॥ यः शब्दादिकः कामगुणः, स एव संसारस्य मूलरूपाणां कषायाणामाश्रयः। अतस्तदर्थी प्रमत्तः सन् महता परितापेन संसारे तिष्ठेत्। यथा ममैते मातापित्रादय उपकरणादयश्च। एवमर्थं गृद्धो लोकः प्रमत्तस्तिष्ठेत्। नक्तन्दिनं च परितप्यमानः कालाकालसमुत्थायी संयोगार्थी अर्थातिलोभश्चौर्यादिप्रवृत्तोऽसमीक्षितकारी धनोपार्जनकविनि
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________________ विष्टचित्तः सन् स पुनः पुनः पृथिव्यादिजीवोपघाते प्रवर्त्तते। इहैकेषां मानवानामल्पमेवायुर्भवति। ततश्च श्रोत्रादीन्द्रियहानिप्राप्तौ जरामरणाभिक्रान्तं निजवयसं पर्यालोच्य सोऽत्यर्थं मौढ्यमापद्यत इति। निन्दन्ति तं तस्यैव स्वजनाः, सोऽपि तान् निन्दति। कथञ्चिद् भद्रिका अपि ते तस्य त्राणाय शरणाय वा नालम्। नापि स तेषाम्। किञ्च हास्य-क्रीडा-रतिविभूषाभ्योऽयोग्यो भवति वृद्धः।
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________________ एवं सम्प्रेक्ष्य यथोक्तसंयमानुष्ठानाय सम्यगुत्थित एनमवसरं पर्यालोच्य धीरः सन् एकं मुहूर्तमपि नो प्रमादयेत्। वयो यौवनं वाऽतिक्रामति। असंयमजीवितेऽध्युपपन्ना विषयकषायेषु प्रमाद्यन्ति। ततश्च ते जीवानां हनन-छेदनादिषु प्रवर्त्तन्ते। मन्यन्ते च यथा यदन्येन नानुष्ठितं तदहं करिष्यामीति। किन्त्वापद्गततया क्षीणसर्वस्वं तं तत्स्वजनादयः पोषयन्ति। स वा प्राप्तेष्टलाभस्तान् पोषयेत्। किन्तु नालं कोऽप्यपरस्य त्राणाय शरणाय
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________________ वा। न चोपभुक्तशेषद्रव्यसन्निधिरपि रोगसमुत्पादे शरणीभवितुं समर्थः। एवं प्रत्येकं दुःखं सुखं वा प्राणिनां ज्ञात्वाऽनभिक्रान्तवया एवात्महितं कुर्यात् / पण्डित! धर्मानुष्ठानावसरमवबुध्यस्व। यावन्नेन्द्रियहानिस्तावदात्मप्रयोजनं सम्यग विदध्याः। संयमदायम् / / 1-2-2 // ज्ञानाद्याचारविषयामरतिं मोहोदयजनितामपवर्तेत स मेधावी स च क्षणेनैव
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________________ मुक्तो भवति। ये तु जडा मोहप्रावृतास्ते सर्वज्ञोपदेशविपर्ययवर्तिनः परीषहोपसगैः स्पृष्टाः संयमानिवर्त्तन्ते। अपरिग्रहा भविष्याम इति चीवरादिग्रहणं प्रतिपद्य लब्धान् कामान् सेवन्ते। स्वैरिण्या मत्या मुनिवेषविडम्बिनस्ते कामोपायारम्भेषु पौनःपुन्येन लगन्ति। ते चात्र विषयाभिष्वङ्गाज्ञानमये भावमोहे पुनः पुनर्निमग्नाः सन्त आरातीयतीरदेश्याद् गृहवाससौख्यादपि भ्रष्टाः, यथोक्तसंयमाभावाच्च परतीरदेश्यान्मुक्तिसुखादपि भ्रष्टाः।
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________________ ये जना रत्नत्रयीपारगामिनस्ते मुक्ता भवन्ति। ते हि सन्तोषेण लोभं परिहरन्तो लब्धान् कामान् न सेवन्ते। गुणदोषपर्यालोचनया पर्यालोच्य लोभं नाभिलषन्ति, एत एवानगारव्यपदेशयोग्याः। आत्मबल-ज्ञातिबलाद्यर्थं पापमोक्षार्थमाशंसया वा यद्दण्डसमारम्भणं तन्मेधाविना कृत-कारिता-ऽनुमतिभिस्त्याज्यम्। आर्योदितोऽयं मार्गो यन्न कुशलेन दण्डसमुपादाने संश्लेषः कार्य इति।
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________________ निर्मानत्वम् / / 1-2-3 // संसारी जीवः पुनः पुनरुच्चनीचगोत्रेषूत्पन्नः। तुल्यान्येवोभयगोत्रबन्धाध्यवसायस्थानानि। अतो जात्यादीनां मदस्थानानामन्यतमदपि नाभिलषेत्। एवं ज्ञात्वा को गोत्रनिमित्तं कुर्यादहङ्कारम् ? कुत्र वा गृध्येत् ? अतः पण्डितो न हर्षं कुर्यात्। भूतानि प्रत्युपेक्ष्य तेषां सुखाभिलाषं जानीहि। पश्य च लोकस्यान्धबधिरत्वादिविडम्बनाः। यः प्रमादेनानेकरूपा योनी: सन्धत्ते, अनुभवति च नाना
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________________ प्रकारान् दुःखानुभावान्। स कर्मविपाकमसम्बुध्यमानो हतोपहतो भवति। पुनर्जन्म पुनर्मरणमित्येवं संसारोदरे विवर्तमानो दीर्घजीवनार्थं सत्त्वोपघातकारिणी रसायनादिकाः क्रियाः कुर्वाणः, क्षेत्रादिषु च ममत्वं विदधन् तपःप्रभृति चापलपन् अधिकतमविषयोपभोगाभिलाषी तदर्थमत्यर्थं लपन मूढो विपर्यासमुपैति।। ज्ञानादिनिरतास्त्विदमेव क्षेत्रादिकं नाभिलषन्ति। अतो जातिमरणे परिज्ञाय दृढे चारित्र उद्युक्तो भव। मृत्योरनवसरो
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________________ नास्ति। सर्वे जीवा प्रियायुषः सुखैषिणो दुःखद्वेषिणोऽप्रियवधा जीवितुकामाश्च। ततश्चासंयमजीवनमाश्रित्य द्विपदाद्यभियोगेन क्लेशेन कुरुतेऽर्थसञ्चयायासम्। कथञ्चित्सञ्चितोऽप्यर्थोऽपहियते दायादादिभिः, विनश्यति वाऽनलादिभिः। एवञ्चान्यप्रयोजनकृते बालः क्रूराणि कर्माणि प्रकुर्वाणस्तत्कर्मविपाकापादितेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति। नासौ पारं गन्तुं समर्थः, गृहीतश्रुतत्वेऽपि श्रुतोक्तसंयमस्थानास्थितत्वात्।
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________________ पश्यकस्योपदेशो नारकादिव्यपदेशश्च नास्ति, विदितवेद्यत्वात्, द्रागेव मोक्षगमनाच्च। बालस्तु रागी कामगृद्धश्चातोऽशमितदुःखत्वेन दुःख्यनुपरिवर्तते दुःखावर्त्तमात्रम्। भोगविरागः // 1-2-4 // धीर! त्यजाऽऽशामिच्छां च। त्वदुःखकारणं हृदयशल्यमेतत्। किञ्चानैकान्तिकानि भोगसाधनानि, कर्मपरिणतिवैचित्र्यात्। नावबुध्यन्ते एतन् मोहप्रावृता जनाः। अत एव प्रव्यथितो लोकः
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________________ स्त्रीभिः, दुःख-मोह-मृत्यु-नरकतिरश्चहेतुत्वात्तासाम्। धर्मानभिज्ञो मूढः। महामोहः खल्वङ्गनाभिष्वङ्गः, अतोऽत्राप्रमादः कर्त्तव्य इति जिनाज्ञा। अतोऽलं कुशलस्य प्रमादेन। सम्प्रेक्ष्यं भवमोक्षयोः स्वरूपम्, शरीरनश्वरत्वं च। किञ्च न भोगास्तृप्तिहेतव इत्यलमेभिः। महद्भयरूपा हि कामदशा। अत आशाछन्दविवेचको वीरः प्रशंसितश्च। संयमानिर्वेदोऽदानाकोपनं स्तोकानिन्दा प्रतिषिद्धनिवर्तनं चेत्येष मुनिभावः समनुपालनीयः। 251
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________________ लोकनिश्रा // 1-2-5 // पुत्राद्यर्थः लोको भोजनारम्भं सन्निधिसञ्चयञ्च कुरुते। तत्र साधुर्वृत्तिमन्वेषयेत्। आर्य आर्यप्रज्ञ आर्यदर्शी साधुः, संयमोद्यमवांश्च। अतोऽसौ कृतकारिताऽनुमतिभिरकल्प्यं परित्यज्य निर्दोषमाहारं गृह्णीयात्। कालबल-क्षेत्रा-ऽवसर-विनय-स्वसमयपरसमय-भावविज्ञः साधुः परिग्रहममकारं परिहरन् कालोचितमनुष्ठानं कुर्यात्। न कामपि कषायोदयजनिताविरत्यात्मिकां प्रतिज्ञां कुर्यात्।
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________________ रागेण द्वेषेण वेति द्विधा भवति प्रतिज्ञा। तां सन्त्यज्य संयमसञ्चरे निश्चितं गमनं कार्यम्। वस्त्र-पात्र-कम्बलपादपुञ्छन-वसति-संस्तारकेषु निर्दोषचर्यया परिव्रजेत्। यावन्मात्रेण गृहीतेन गृहिणो न पुनरारम्भः, आत्मनो वा यापनं तावन्मात्रां जानीयात्। लाभे मदं न कुर्यात्। अलाभे न शोकं विदधीत। बह्वपि लब्धं न स्थापयेत्, सन्निधेः प्रतिषिद्धत्वात्। नापि धर्मोपकरणे मूर्छा कुर्यात्। आचार्यसत्कमिदमुपकरणं न ममेत्येवं तन्मूछौँ त्यजेत्, धर्मोपकरणत्यागस्य धर्मत्यागपर्यवसानात्।
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________________ जिनोदितोऽयं मार्गः, यदादरेण पापोपलेपपरिहार इति। दुरतिक्रमाः कामाः। क्षीणमायुर्न वृद्धि नीयते। कामाभिलाषी पुरुषः शोकखेद-पीडा-परितापभाजनं भवति। दीर्घदृष्टिस्तु लोकविदर्शी भवति। जानात्यसौ लोकस्याधोभागादिगतं नरकदुःखादिकम्। कर्मानुभावेनानुपरिवर्त्तमानं कामगृद्ध लोकमपि पश्यति। ततो मनुजेषु यो ज्ञानादिको भावसन्धिस्तं विदित्वा विषयकषायान् परिहरन् वीरः। स्तुतोऽसौ सुविहितैः यः कर्मरूपादान्तराद् 28
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________________ बन्धनात् पुत्रादेर्बाह्यबन्धनाच्च स्वतो विमुक्तोऽपरान्नपि मोचयति। नवश्रोतोभिरनवरतं स्रवद्भिः प्रकटीभवन्तं देहस्याशुचिभावं पश्यत्यसौ। न वान्तस्य पुनरभिलाषं कुर्यात्। नापि ज्ञानादिप्रातिकूल्यं विदधीत। किंकर्त्तव्याकुलो हि भोगाभिलाषी। बहुमायी चासौ। ततश्चाश्नुते दुःखम्। पुनः कुरुते लोभम्। असत्प्रवृत्त्या वर्द्धयति वैरम्। प्रवर्त्ततेऽजरामरवत् क्रियासु। दधाति महतीं भोगाभिलाषाम्। ततश्च क्रन्दतेऽसौ। एवमेनमार्तं सम्प्रेक्ष्य
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________________ न कामार्थेच्छा कर्त्तव्या। कामव्याधिचिकित्सनं करिष्य इत्येवं मन्यमानः करोति हननादिकाः क्रियाः। अत एवं कर्तुः कारयितुश्च सङ्गेनालम्, बालत्वात्तयोः, नैतत्करणं वा कारणं वा कल्पतेऽनगारस्येति। निर्ममत्वम् // 1-2-6 // सुखार्थी षट्कायेष्वन्यतरस्यापि समारम्भं कुर्वन् दुःखमेव लभते। स्वकीयेन विविधप्रमादेनासौ व्रतभेदं विधत्ते। ततश्च भ्राम्यति संसारे। एवं प्रत्यक्षमीक्ष्यमाणां प्राणिपीडां
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________________ प्रत्युत्प्रेक्ष्य परदुःखोत्पादकं कर्म न कर्त्तव्यमिति परिज्ञोच्यते। एवञ्च कर्मोपशान्तिस्स्यात्। ममत्वबुद्धिं परिहरन परिहरति परिग्रहम् / ममकारविमुक्तो हि मुनिर्मोक्षमार्गद्रष्टा। ममकारो हि दुःखहेतुरिति परिज्ञाय मेधावी लोकं विदित्वा लोकसञ्ज्ञां च वान्त्वा संयमोद्योगं विदध्यात्। त्यक्तरत्यरतितयाऽविमनस्कत्वेन रागमुपयाति वीरः। सम्यक् सहतेऽसौ मनोज्ञेतरशब्दादिविषयान्। जुगुप्सतेऽसंयमजीविताऽऽनन्दम्। धुनाति संयमेन
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________________ कर्मशरीरम्। सेवते विरसमक्षं चाहारम्। विरतश्चोक्तो भगवता। जिनाज्ञातिक्रमकारी मुनिर्मुक्तेरयोग्यो भवति। स शुद्धमार्गप्ररूपणावसरे ग्लानिं प्राप्नोति। तदितरस्तु वीरः। व्रजति चासौ मुक्तिम्। दुःखकारणं हि कर्मेति परिज्ञाय सर्वशः परिहार्यं तत्। यो हि यथावस्थितपदार्थद्रष्टा स मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते। यथा पूर्णस्य
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________________ चक्र्यादेर्धर्मः कथ्यते, तथैव तुच्छस्य द्रमकादेः, रागादिमुक्तत्वान्मुनेः। न चानादरेण हन्तारं धर्मः कथनीयः, श्रेयोविरहात्। कथकेन द्रव्यादितः श्रोतृविचारः कर्त्तव्यः। बन्धप्रमोक्षान्वेषिणा साधुना भाव्यम्। कुशलस्तु न बद्धः, क्षीणघातिकर्मत्वात्। नापि मुक्तः भवोपग्राहिकर्मगोचरत्वात्। संयमानुष्ठानमारम्भणीयमनारम्भणीयं त्वनाचीर्णम्। अतो येन प्रकारेण हिंसोत्पद्यते तज्ज्ञात्वा परिहरेत्। त्यजेच्च लोकसञ्ज्ञामपि।
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________________ शीतोष्णीयम् भावनिद्रा // 1-3-1 // अज्ञानिनः सदा सुप्ताः। मुनयः सदा जाग्रति, हिताहितप्राप्तिपरिहारप्रवणत्वात्तेषाम्। अहितायाज्ञानं लोके। लोकाचारं ज्ञात्वा शस्त्रादुपरतो भवेत्। नेष्टेतरेषु शब्दादिषु रागादिकं कुरुते मुनिः। ततश्चासौ आत्मवान्, रक्षितात्मत्वात्, ज्ञानवान्, यथावस्थितपदार्थबोधसम्पन्नत्वात्, वेदवान्, आचाराद्यागमज्ञत्वात्, धर्मवान्, तदभिज्ञत्वात्,
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________________ ब्रह्मवान्, योगिशर्मालङ्कृतत्वात्। जानात्यसौ लोकं प्रज्ञानैः। स एव मुनिपदवाच्यः। स एव धर्मवित्, ऋजुश्च। वेत्त्यसौ संसारविषयाभिलाषयो रागद्वेषाभ्यांसम्बन्धम्, ततश्चानर्थरूपमेनं मत्वा छिनत्ति। शीतोष्णपरीषहावतिसहमानो हि निर्ग्रन्थः। नासौ परीषहं पीडाहेतुत्वेन गृह्णाति। जागृतोऽसौ। वैरोपरतश्च। एवं त्वमप्यात्मानं दुःखात्प्रमोक्ष्यसि। अपरथा तु जरामृत्युवशवर्त्तिता मोहो धर्मानभिज्ञता च। दुःखितान् दृष्ट्वा
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________________ 8. ! जन्तूनप्रमत्तः परिव्रजेत्। दुःखमारम्भजमिति ज्ञात्वा निरारम्भो भवेत्। मायी प्रमादी च पुनर्गर्भमेति। यस्तु शब्दादिषु माध्यस्थ्यमुपैति, स यतिरेव परमार्थत ऋजुः। तस्यैव तत्त्वतो मरणोद्वेगः। स एव मरणान्मुच्यते। कामप्रयुक्तप्रमादगोचरेऽप्रमत्तोऽयम्। उपरतः पापकर्मभिः। वीरोऽसावात्मगुप्तो विचक्षणश्च। यो विषयोपादानहेतुकहिंसाया निपुणः, स संयमस्य निपुणः। संयमनिपुणश्चोक्तहिंसाज्ञः। नाकर्मणो भवभ्रमणम्, आत्मोपाधेः
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________________ कर्मकारणत्वात्। अतः प्रत्युत्प्रेक्ष्य कर्म यतनीयं तदभावे। मिथ्यात्वादियोनिहिंसेति सा त्याज्या। रागद्वेषौ परिज्ञातव्यौ। लोकं विज्ञाय लोकसञ्ज्ञां च वान्त्वा पराक्रमेत मेधावी। असंयमफलम् // 1-3-2 // आर्य! पश्य जन्म बालादिवृद्धावसानां वृद्धिं च। पर्यालोचय यथा त्वत्समानैव सुखेच्छा सर्वेषामपि जीवानाम्। ततश्चातिविद्यस्सन् ज्ञात्वा मोक्षमार्ग समत्वदर्शी पापं न कुर्यात्।
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________________ अपाकुरु मत्र्यैः स्नेहपाशम्। आरम्भजीवित्वात्तेषाम्। भवैहिकामुष्मिकोभयानुदर्शी। कामगृद्धास्तु कर्मोपचयं कृत्वा गर्भाद् गर्भान्तरमुपयान्ति। किञ्च ते हासमासाद्य हत्वा क्रीडेति मन्यन्ते, तत्सङ्गेनालम्, वैरवर्द्धकत्वात्। संयमे धृतिं कुरु। अत्र निरतो मेधावी क्षपयति सर्वं पापम्। अनेकचित्तपुरुषः स्वेच्छापूत्यै हिंसादिप्रवृत्तो भवति। निःसाराः खलु विषया इति न तानभिलषेत्। जन्म मरणं च ज्ञात्वा विषयासङ्गोन्मुखो भवेत्। सेवेत च
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________________ ज्ञानादिः। जुगुप्सेत विषयजनितं प्रमोदम्। विरक्तस्स्यात्स्त्रीषु। सम्यग्दर्शनादिदर्शी निर्विण्णो भवेत् पापकर्मभ्यः। नरकादिविपाकं दृष्ट्वा क्रोधादिनिरोधं कुर्यात्। वीरो विरमेत् वधात्, छिन्द्यात् शोकम्, भूयाच्च मोक्षगामी। बाह्याभ्यन्तरग्रन्थं परिज्ञाय विषयाभिष्वङ्गं च ज्ञात्वा दान्ततया चरेत्। न ह्यन्यत्र मनुजभवादेतादृशमुन्मजनमिति तल्लब्ध्वा न हिंसादिभिस्तद् विफलीकुर्यात्।
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________________ श्रामण्यम् // 1-3-3 // कर्मविवरं प्राप्य जीवलोकस्य दुःखोत्पादकमनुष्ठानं न कर्त्तव्यम्। आत्मनो बहिरपि पश्य, यत्परेऽपि त्वद्वत् सुखप्रियाः। अतः कृत-कारिता-नुमतिभिहिंसाविरतो भवेत्। मोहावृतबुद्धयो न जानन्त्यतीतमनागतं च। एके तु वदन्ति-अतीतभव एवानागतकाले लभ्यत इति। न तु सर्वज्ञास्तथाऽवधारयन्ति। एतदनुदर्शी भवति विमलीकृताचारो मुनिः। ततश्च क्षपयिष्यत्यसौ कर्म।
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________________ अरत्यानन्दयोरग्रहस्सन् चरेत्। सर्वं हासं परित्यज्याऽऽलीनगुप्तः परिव्रजेत्। आत्मन् ! त्वमेव त्वन्मित्रम्, किमिति बहिर्मित्रमिच्छसि? विषयसङ्गापनेता हि मोक्षमार्गव्यवस्थितः। तत्स्थितश्च तदपनेता। नात्मनिग्रहमन्तरेण दुःखमोक्षः। संयम एवाऽऽसेव्यः, तदुपस्थितस्य संसारतरणसम्भवात्। ज्ञानादिसहितो धर्ममादाय श्रेयः समनुपश्यति। मोक्षोपायः // 1-3-4 // एकज्ञः सर्वज्ञः, सर्वज्ञश्चैकवित्। प्रमत्तस्य
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________________ सर्वतो भयम्। अप्रमत्तस्य सर्वतोऽभयम्। एकस्यैव मोहनीयस्य नामयिता शेषाणां यिता चैकस्यानन्तानुबन्धिनो नामयिता। परेण संयमेन परं स्वर्गापवर्गरूपं गम्यते। शस्त्रं परेण परमस्ति, संयमस्तु नास्ति, सर्वत्र पृथ्व्यादिष्वेकरूपत्वात्तस्य। यः क्रोधदर्शी स मानदर्शी। यो मानदर्शी स मायादर्शी। एवं लोभ-प्रेम-द्वेष-मोहगर्भ-जन्म-मृत्यु-नरक-तिर्यक्-दुःखदर्शनेष्वपि भाव्यम्। सर्वमप्येतत् त्यजेन् मेधावी। पश्यक-स्योपाधिर्नास्ति।
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________________ सम्यक्त्वम् सम्यग्वादः // 1-4-1 // सर्वजीवेषु हिंसा-ऽभियोगादिकं त्याज्यमित्यनन्तार्हदाज्ञा। उपस्थितानुपस्थितादिषु कर्त्तव्या धर्मकथा, प्राप्य सद्दर्शनं न गोपयेत्, नापि त्यजेत्। मनोज्ञेतरेषु रूपादिषु निर्वेदं गच्छेत्, शुभाशुभत्वयोः परिणत्यधीनत्वेन रागाद्यनौचित्यात्। त्यजेच्च तद्गोचरां लोकैषणाम्, तद्रहितस्य हिंसात्यागसम्भवात्।
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________________ सदातनविवेकसम्पन्नो धीरोऽहोरात्रं यतेत मोक्षाध्वनि। पश्येच्च धर्मबाह्यान् प्रमत्तान्। सदाऽप्यप्रमत्ततया पराक्रमेत। धर्मप्रवादः // 1-4-2 // य आश्रवा ते परिश्रवाः, ये परिश्रवास्त आश्रवाः येऽनाश्रवास्तेऽपरिश्रवाः, येऽपरिश्रवास्तेऽनाश्रवाः। बन्धनिर्जराहेतुत्वस्य परिणामाधीनत्वात्। एवमवगम्योद्यच्छेत्तपसंयमयोः। दुष्प्राप्यं प्राप्य सम्यक्त्वं न कार्यः प्रमादः, मृत्युमुखस्यानागमाभावात्।
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________________ स्वेच्छाचारिणोऽसंयमिनः पुनः पुनर्म हेतावध्युपपन्नाः प्रविशन्ति पृथक् पृथगेकेन्द्रियादिकां जातिम्। सत्तपः // 1-4-3 // धर्मबाह्यलोकानुष्ठानं माऽनुमंस्थाः / जिनाज्ञाकाङ्क्षी हि पण्डितः, स चास्निहः, कुटुम्बादिस्नेहरहितत्वात्। विभाव्यैकत्वं कर्म शरीरं धूनीयात्। कृशं कुरु तपसाऽऽत्मानम्। जरीकुरु च। यथाऽग्निर्जीर्णकाष्ठानि प्रमथ्नाति,
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________________ नानि दहस्व। त्यज च क्रोधम्, परिगलितत्वादायुषः, दुःखहेतुत्वाच्च क्रोधस्य। संयमः // 1-4-4 // पूर्वसंयोगं त्यक्त्वा प्रथमप्रव्रज्यावसरेऽविकृष्टेन तपसा शरीरमिषत् पीडयेत्। ततोऽधीतागमस्सन् विकृष्टतपसा प्रपीडयेत्। पुनरप्यध्यापितान्तेवासिवगर्गो मासक्षपणादिभिर्नि:पीडयेत्। गच्छेच्चोपशमम्। अविमनस्को हि वीरः, संयमे वैमनस्यविरहात्। दुरनुचरोऽयं मार्गो वीराणां मोक्षगामिनाम्। दर्पकारि
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________________ मांसशोणितं विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना पृथक्कुरु। एवं कुर्वाणो ब्रह्मचर्य उषित्वाऽऽदेयवचनो भवति। बालस्तु मिथ्यात्वादिषु विषयेषु च गृद्धोऽव्यवच्छिन्नबन्धनोऽत्यक्तसंयोगो मोहवर्तितया मोक्षोपायमजानानो वञ्यते जिनाज्ञालाभात्। प्राक्पश्चात्तनभवेषु तद्वञ्चितस्य न वर्तमानभवेऽपि तल्लाभसम्भवः। बन्धवधादिगोचरो भवति सावद्याऽऽरम्भप्रवृत्तः, अतस्त्यजेद्धिंसाम्।
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________________ लोकसारः कूटमुनिः // 1-5-1 // अर्थादनाद्वा केचन जीवान् घातयन्ति, दुरतिक्रमत्वात्कामानाम्। ततस्ते पुनः पुनर्मरणान्न मुच्यन्ते। दूरोऽसौ मोक्षात्। विषयसुखस्यान्तरपि स न, दूरेऽपि न, तदनवाप्तेस्तदाशाऽपरित्यागाच्च। कुशाग्रस्थितस्य वातेरितस्य जलबिन्दोः पतनमिव बालस्य जीवितम्। संशयपरिज्ञः संसारपरिज्ञाता स्यात्, तदज्ञश्च तदनभिज्ञः। निपुणो न सेवते मैथुनम्। * 48
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________________ कृत्वाऽपि तदपलपनं मन्दस्य द्वितीया बालता। नरकहेतुतया ज्ञात्वा विषयानुषङ्गं लब्धानपि कामान् चित्ताद् बहिःकुर्यात्। अज्ञा अशरणमपि शरणतया मन्यन्ते। केचिच्चैकाकितया विचरन्ति कुर्वते च प्रच्छन्नतया पापम्। सततं मूढो नाभिजानाति धर्मम्। ततश्चाविरतोऽविद्यश्च परिवर्तते संसारम्। भावमुनिः // 1-5-2 // सम्यक् परीषहोपसर्गान् सहमानो हि भावसाधुः। पूर्वं पश्चाद्वापि सोढव्या एव त इति चिन्त्यम्। भावनीयं
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________________ च देहनश्वरत्वम्। तद्भावयितुश्च ज्ञानादिरतस्य न नरकादिगमनम्। महाभयं परिग्रहः नरकादिहेतुत्वात्, अतस्त्यजेत्तम्। अपनीयते हि परिग्रहिणः सुज्ञानादि। विपराक्रमेत परमचक्षुः। निष्परिग्रहेष्वेव ब्रह्मचर्यम्। सपरिग्रहा विषयसक्ताश्च बहिर्भूता धर्मस्य। साधुता // 1-5-3 // न हि द्रव्यत्यागमन्तरेणापरिग्रहभावोदयः। समभावतो धर्मः। नान्यत्र स जिनशासनात्। अतो नात्र निगृहयेद् वीर्यम्। उत्कृष्टसाधुः सिंहोत्थितः
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________________ सिंहविहारचारी च भवति। अकामोऽमायश्चासौ। अनेनैव स्वैरिणा शरीरेण सार्धं युद्धस्व, किं ते बाह्यतो युद्धेन ? युद्धार्हमेतद् दुर्लभं मानुष्यम्। बालो धर्मभ्रष्टस्सन् रज्यते गर्भादिषु। यत् सम्यक्त्वम्, तन् मुनित्वम्। मुनित्वं च सम्यक्त्वम्। दुश्चरमेतत् स्नेहाकुलानां विषयिणां प्रमत्तानां मायाविनां गृहिणाम्। अतो मुनिर्मीनं समादाय कर्मशरीरं धूनीयात्। एकाकिविहारदोषः // 1-5-4 / / अव्यक्तस्यैकाकिनो दुर्यानं दुष्पराक्रान्तं
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________________ च स्यात्। वचसाप्येक उक्ताः कुप्यन्ति, मुह्यति च महामोहेन, मानित्वात्। ततोऽप्येकाकिभूतस्य तस्य भूयो भूय उपसर्गादिकृताः पीडाः स्युः दुरतिक्रमाश्च ताः, अज्ञानानुभावात्। मा भूदेवमित्याचार्यदृष्ट्या हेयोपादेयेषु वर्तितव्यम्। यतितव्यं तदुक्तविरत्यात्मिकायां मुक्तौ। आचार्य एव सर्वकार्येष्वग्रतः स्थाप्यः। तत्सञ्जया सर्वं कार्यं विदध्यात्। सदा गुरुकुलवासी स्यात। ततश्च यतनया प्रत्यपेक्षणादिकाः क्रियाः कुर्यात्। आचार्याभिप्रायेण वर्तेत। गुरोः क्वचिद् गतस्य पथनिायी
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________________ स्यात्। कार्यादृते तदवग्रहाद् बाह्यः स्यात्। गमनादिषु यतनया वर्तेत। सम्भाव्यतेऽप्रमत्तस्यापि प्राणिपरितापादि, किन्तु तदैहिकभवमात्रानुबन्धि, तेनैव भवेन क्षिप्यमाणत्वात्। आकुट्टिकृतं तु प्रायश्चित्तविशोध्यम्। रागस्य परमनिमित्तं स्त्रीजनः। तेन बाध्यमानेन निःसार आहारो ग्रहीतव्यः, अवमोदर्यं च कार्यम्। तेनाप्यनुपशमे तिष्ठेदुर्ध्वस्थानम्। कुर्याच्चातापनाम्। तेनाप्यनुपशमे ग्रामानुग्राममपि विहरेत्। तेनाप्यनुपशम आहारमपि
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________________ व्यवच्छि-न्द्यात्। एवञ्च त्यजेत् स्त्रीषु प्रवृत्तं मनः। यतस्तत्प्रसक्तानां पूर्व पश्चाद्वा दण्डा भवन्ति। कलहहेतुश्च स्त्रीसम्बन्धः। अतो न कुर्यात् तत्कथाम्। न पश्येत्तदङ्गप्रत्यङ्गादिकम्। न कुर्यात् ताभिः पर्यालोचनम्। न विदधीत तासु मप्रकारम्। नैव पूर्वोपकारिणीयमिति भजामीति कृतक्रियो भूयाद् वाङ्मात्रेणापि। भवेदध्यात्मसंवृत एतन्मौनसमुपासकः। आचार्यनिश्रा // 1-5-5 / / चतुर्धा भवति हृदस्तदुपम आचार्यश्च। (1)
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________________ परिगलत्श्रोताः, पर्यागलत्श्रोताश्च, शीताशीतोदाप्रवाहहृदवत्। एवमाचार्यः श्रुतमङ्गीकृत्य, श्रुतस्य दानग्रहणसम्भवात्। (2) परिगलत्श्रोताः, नो पर्यागलत्श्रोताः, पद्महृदवत्। एवं सूरिरपि साम्परायिककर्मापेक्षया नास्य ग्रहणम्, कषायोदयविरहात्। क्षपणोपपत्तिश्च तपसा। (3) नो परिगलत्श्रोता: पर्यागलत्श्रोताश्च, लवणोदधिवत्। तथा सूरिरप्यालोचनामाश्रित्य, अप्रतिश्रावित्वात्। (4) नो परिगलत्श्रोताः नो पर्यागलत्श्रोताश्च, मनुष्यलोकाद्
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________________ बहिः समुद्रवत्। एवमाचार्योऽपि कुमार्ग प्रतीत्य, तत्प्रवेशनिर्गमविरहात्। विचिकित्सा समाधिविघ्नम्। तदेव सत्यं निःशकं यजिनोक्तम्। परिणामवैचित्र्यावृध्द्यादिभावं प्रतिपद्यते प्रव्रजितस्य श्रद्धा। यं हननादिगोचरीकर्तुमिच्छसि, स त्वमेव। तदेतत्परिज्ञानजीवी साधुरेव। य आत्मा स विज्ञाता, विज्ञाता चाऽऽत्मा। येन विजानाति, स आत्मा। ज्ञानात्मनोरतिरेकविरहात्। सम्यक् पर्याय एवं यथावस्थिताऽऽत्मवादिनः।
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________________ .. जिनाज्ञाऽऽराधनम् / / 1-5-6 // अनाज्ञया धर्मोपस्थापनत्वम्, आज्ञया च निरुपस्थापनत्वं द्वयमपि मा भूयात्, दुर्गतिहेतुत्वात्। आचार्यपारम्पर्योपदेशेन सर्वज्ञोपदेशं सन्मत्या जानीयात्, परव्याकरणेनान्येषामप्याचार्यादीनामन्तिके श्रुत्वा जानीयात्। ततस्तनिर्देशं मर्यादावान् नातिवर्तेत। उर्ध्वलोकादिगतस्त्र्यादिविषयाभिलाषः कर्मानुषङ्गहेतुरिति तं त्यजेत्। आवर्त सम्प्रेक्ष्य विरमेदत्र मेधावी। प्रव्रज्ययापनयेदाश्रवद्वारम्। मोक्षरतोऽत्येति
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________________ 142) जातिमरणमार्गम्। न यत्स्वरूपं शब्दास्तर्का मतिर्वाऽवगाहितुं समर्था इति। दीर्घत्वादिरहितत्वात्, कृष्णत्वादिशून्यत्वात्, कर्कशत्वादिविकलत्वात्, शरीरातीतत्वात्, निःसङ्गत्वात्, स्त्रीत्वाद्यकलङ्कितत्वाच्चोपपद्यतेऽस्य हृषीकाद्यगोचरत्वम्। ज्ञानदर्शनयुक्तोऽसौ, निरुपमोऽरूपी च। अवस्थाविशेषरहिततया वाच्यविशेषरहितोऽसौ। अपि च न शब्दादिरूपोऽप्यसौ।
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________________ धूतम् प्रमादः ||1-6-1 / / एकेन्द्रियादिसर्वजातिसुज्ञाता धर्ममाख्याति समुत्थितेभ्यः। ततश्चैके महावीरपुरुषाः विपराक्रमन्ति। केचित्तु सीदन्ति संयमे। पलाशप्रच्छन्नहृदस्थितकूर्मवन्न लभन्ते विवरमपर्यागन्तुम्। रूपेषु सक्ता रुदन्ति करुणम्। न लभन्ते स्वकर्मतो मुक्तिम्। ततश्च गण्डादिषोडशरोगपीडितेषु जायन्ते। भवन्ति च महादुःखिनः। तेषां मरणोपपातच्यवनादि ज्ञात्वा कर्मवि
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________________ पाकं च सम्प्रेक्ष्य यतितव्यं तदुच्छित्तये। सन्ति जीवा नरकस्था जलादिगाश्च। प्राणिनोऽपरान् प्राणिन आहाराद्यर्थं मत्सरादिना वोपतापयन्ति। पश्येदं लोके महद्भयम्। बहुदुःखास्तु जन्तवः। मानवाः कामसक्ताः। ततश्च कर्मोपचित्यानेकशो वधं गच्छन्ति। रोगिणोऽपि भवन्ति। ततोऽपि प्राण्युपमईचिकित्सया पापिनोऽनुभवन्ति तदुर्विपाकम्। अतो नातिपातयेत् कञ्चनापि प्राणिनम्। कर्मधूननं ज्ञातिपरित्यागो वा धूतम्, तद्वादं प्रवेदयिष्यामि। यथोत्पत्ति-जन्म
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________________ 6 वृद्धि-धर्मश्रुत्यादिक्रमेण महामुनयोऽभिनिष्क्रमन्ते। तत्प्रव्रज्यावसरे च रुदन्ति जनकाः। नैते मच्छरणमिति जानाना नैते रमन्ते तद्वचसि। ते च संसारपारयायिनः। कर्मविनयः // 1-6-2 // अथैके धर्मपालनाशक्ताः कुशीलाः। न ते सहन्ते परीषहान्। कुर्वते कामेषु ममकारम्। परित्यज्योपकरणानि व्रजन्ति गृहवासम्। ततश्चानन्तमपि कालं यावन्नासादयन्ति पञ्चेन्द्रियत्वादिसामग्रीम्। अन्ये तु दृढधर्माणो निर्ममत्वा यतमाना द्रव्यतो भावतश्च मुण्डाः। ते
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________________ चाक्रोशादावपि तितिक्षमाणाः परिव्रजेयुः। परीषहादिसहिष्णवो हि भावनिर्ग्रन्थाः। नेच्छन्ति ते गृहप्रत्यागमनम्। आज्ञानुरूपं पालयन्ति मदुक्तधर्मम्। ततश्च क्षपयन्ति कर्म। साधुसमाचारः।।१-६-३॥ सर्वज्ञोक्ताचारमनुपालयन् मुनिस्त्यजत्यधिकवस्त्रम्। न चिन्तयति तदभावोपनीतपरीषहप्रतिकारम्, नापि साम्प्रतवस्त्रजीर्णत्वादिकम्, तत्सन्धनादिकम्, प्रत्यग्रवस्त्रलाभोपायं च। ततश्च सहतेऽसौ परीषहान्।
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________________ कृशा भवन्ति बाहवः प्रज्ञानसम्पन्नानाम्। प्रतनुके च मांसशोणिते। ते च क्षान्त्यादिना कषायसन्ततिमपनीय मुच्यन्ते। जलबाधारहितद्वीप इव भावसाधुः। नास्य कदाचिदप्यरतिबाधा। पक्षिशिक्षितास्तत्पोता यथोड्डयनविधौ प्रत्यला भवन्ति, तथाऽऽचार्यशिक्षिताः शिष्या अपि तरितुं भवाब्धिम्। निर्वेदः // 1-6-4 // केचित्त्वाचार्यसकाशादधीत्य मानेन परुषा भवन्ति। अतिक्रामन्ति तदाज्ञाम्। गृध्यन्ति कामेषु। आसजन्ति गौरवेषु।
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________________ न सेवन्ते समाधिम्। परुषं वदन्ति शास्तारमेव। स्वयमशीला अपि ते निन्दन्ति सुशीलान् साधून्। सा च मन्दानां तेषां द्वितीया बालता। केचित्तु कर्मोदयानिवर्तमाना अपि संयमाद् वदन्ति यथावस्थितमाचारगोचरम्। बालास्तु सदसद्विवेकभ्रष्टाः। सम्यग्दर्शनप्रध्वंसिनो भवन्ति। अपरे तु विनीता अप्यपनयन्ति संयमम्, कर्मोदयात्। परीषहस्पृष्टा वा निवर्तन्तेऽसंयमहेतोः। तेषां निष्क्रान्तमपि दुर्निष्क्रान्तम्। अज्ञानामपि निन्दनी
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________________ ... 2 4 यास्ते। ते च पुनः पुनर्जन्ममरणभाजो भवन्ति। अज्ञा अपि त आत्मानं विद्वांसं मन्यमानाः परुष वदन्ति मध्यस्थान्। एतान् सर्वानपि ज्ञात्वा मेधावी वीर आगमानुसारेण सदा पराक्रमेत। ___ समता // 1-6-5 // गृहादिषूपसर्गकारिणो जना भवन्ति, स्पर्शा वा दुःखदाः स्पृशन्ति। तान् धीरोऽधिसहेत सम्यक्। तितिक्षेत तान् नरकादिदुःखभावनया। रागादिरहितः सम्यग्दृष्टिः सर्वत्र दयां कुर्वन् द्रव्यतो ज्ञात्वा क्षेत्रतः प्राच्यादिदिग्विभागान
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________________ भिसमीक्ष्य कालतो यावज्जीवं भावतोऽरक्तद्विष्टश्च धर्ममाचक्षीत। स आचक्षीत शान्त्यादिरूपं धर्मम्। स च धर्ममाचक्षाणः परिहरेत् स्वपराऽऽशातनाम् सर्वजीवाऽऽशातनां च। एवञ्चासौ जलबाधारहितद्वीप इव भवति शरणम्। कायव्याघातः सङ्ग्रामशीर्षतया व्याख्यातः। न तत्र परीषहसेनातोऽपि बिभेति मुनिः, स एव पारङ्गमी। स च परीषहैर्हन्यमानोऽपि फलकवत्तिष्ठति। न च मृत्युं यावदप्यसौ शङ्कते तत इति। 66
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________________ विमोहः कुशीलपरिहारः / / 1-8-1 // न कुशीलेभ्यो वस्त्रादिकं दद्यात्, नापि तद्वैयावृत्यं कुर्यात्। नापि तत् तेषां स्वीकुर्यात्, संस्तवं वा तैः कुर्यादपि त्वनादरवान् भवेत्। एवमेव हि दर्शनशुद्धिरिति। यतो हि हिंसाऽज्ञानकलुषिततया न तेषां स्वाख्यातो धर्मः। जिनोक्तस्तु धर्मः स्वाख्यातः सर्वज्ञत्वाजिनानाम्। परीक्षितश्चैष एव सिध्यति निष्पापतया।
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________________ अकल्प्यत्यागः // 1-8-2 // स्मशानादौ स्थानादिप्रतिपन्नस्य भिक्षोर्यदि कश्चिद् गृही ब्रूयाद्यथा तवार्थमहमशनाद्यारम्भं करोमि, तत्त्वं गृहाण, तदा स प्रतिषेध्यो भिक्षुणा, यथा विरतोऽहमेतस्मात्पापात्। भिक्ष्वर्थं कृतं चाशनादिकमुपलभ्य स्वसन्मत्यादिभिः कथयेद्यथा नैतद् ग्रहीतुं कल्पते ममेति। कदाचिदसौ कुपिततया परीषहानुदीरयेत्तानधिसहेत भिक्षुः। पुरुषं वा पर्यालोच्याचारं प्ररूपयेन्निजम्। यद्वा वाग्गुप्तस्सन् प्रत्युपेक्षेतोद्गमादिशुद्धिम्।
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________________ उद्युक्तविहारी साधुश्चारित्रवते दद्यादशनादिकम्, कुर्यात्तद्वैयावृत्यम्, तं प्रति सादरश्च भवेत्। शीतबाधा // 1-8-3 // आहारोपचया देहाः। परीषहैर्भङ्गराः। पश्यतैके कातराः सर्वेन्द्रियग्र्लायमानैः क्लीबतामियुः। यदि शीतस्पर्शपरिवेपमानं साधुं गृही ब्रूयात्-किं कामोदयहेतुकं त्वद्वेपनम् ? तदा भिक्षुः कथयेत्-न मम कामोदयः, अपि तु शीतबाधा। न कल्पते ममाग्निप्रज्वालनम्, तत्कारणं च /
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________________ कदाचिद् गृही प्रज्वालनादि कुर्यात्, तदा श्रमणः स्वाचारसद्भावं ज्ञापयेत्। वस्त्रविषय आचारः // 1-8-4 // प्रतिमादिप्रतिपन्नस्य तुर्यवस्त्रयाञ्चेच्छा न भवति। वस्त्रत्रयरहितोऽप्यसौ यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत। यथापरिगहीतानि च धारयेत्। न धावेत्। नापि धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत्। वस्त्राण्यगोपायन व्रजेत्, न ह्यन्तप्रान्तगोपनं भवतीति तादृशान्येव धारयेदिति हृदयम्। प्रमाणतो मूल्यतश्चावमचेलस्स्यात्। सामग्यं ह्येतद् वस्त्रधारिणः।
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________________ अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽतिक्रान्तो हेमन्तः, प्रतिपन्नश्च ग्रीष्मः, तदा परिजीर्णानि परिष्ठापयेद्वस्त्राणि, यद्वा सान्तरं प्रावरणं कुर्यात्। यद्वा द्विकल्पधारी भवेदेकत्यागेन। ततोऽप्यपगते शीत एकशाटकोऽचेलस्ततोऽपि।मुखवस्त्रिकारजोहरणमात्रोपधिरित्यर्थः। एवं हि लाघवं तपश्च। समत्वं समभिजानीयात् सचेलाचेलावस्थयोः। स्त्र्यादिपरीषहासहिष्णोरुद्बन्धनादिना मरणमपि हितं सुखं युक्तं निःश्रेयसमानुगमिकं च।
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________________ भक्तपरिज्ञा // 1-8-5 // रोगेण भिक्षाचर्यायामसमर्थस्यापि न कल्पतेऽभ्याहृतादिदोषदुष्टस्य ग्रहणम्। वैयावृत्यकरणग्रहणगोचरगृहीतनियमेन मुनिना सम्यक् प्रतिपालनीयः स्वनियमः। इङ्गितमरणम् // 1-8-6 // एक एवाहम्, न मे कोऽप्यस्तीत्यात्मानमेकाकिनमेव समभिजानीयान् मुनिः। भिक्षुर्भिक्षुणी वाऽशनादिकं वामतो हनुतो दक्षिणं हनुं न सञ्चा
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________________ रयेदास्वादयन्। दक्षिणतश्च वामम्। एवं हि लाघवं तपश्च। शरीरनिर्वाहासामर्थ्य सति संवाऽऽहारं प्रतनुकान् कृत्वा कषायान् नियम्य कायव्यापारान् फलकवदवस्थायी शरीरसन्तापरहितस्सन् इङ्गितमरणं कुर्यात्। तदर्थं ग्रामादिकमनुप्रविश्य प्रासुकभूमौ संस्तीर्य तृणानि प्रत्युत्प्रेक्ष्योच्चारादिभूमिं कुर्यादिङ्गितमरणप्रत्याख्यानम्। ततोऽपि त्यक्त्वा भिदुरं कायं संविधूय परीषहोपसर्गान् प्रतिपद्येतेङ्गितं मरणम्। एतदपि हितं
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________________ O NL2 यावदानुगमिकमिति प्राग्वत्। पादपोपगमनम् // 1-8-7 // यो भिक्षुस्तृणादिस्पर्शमधिसोढुं शक्तः, न तु गुह्यप्रच्छादनत्यागे, तस्य कटिबन्धनवस्त्रग्रहणं कल्पते। मरणत्रयविधिः // 1-8-8 // सर्वमनन्यसदृशं ज्ञात्वा समाधिमनुपालयेत्। अन्तिमाराधनां प्रतिपन्नो भिक्षुर्जीवितं नाभिकाक्षेत्, नापि मरणं प्रार्थयेत्, अपि तु द्वयोरपि सङ्गं न कुर्यात्। मध्यस्थो निर्जराप्रेक्षी
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________________ समाधिमनुपालयेत्। बाह्याभ्यन्तरोपधिं व्युत्सृज्यान्वेषयेदध्यात्मशुद्धिम्। समाधेरुपायं ज्ञात्वा तमासेवेतानशनचिकीर्षुर्मुनिः। प्रासुकभूमौ तृणसंस्तारे त्वग्वर्तनं कुर्वन् परीषहादीनध्यासयेत्, न तु मर्यादामुल्लङ्घयेत्। मांसशोणिते भुजानान् पिपीलिकादिप्राणिनो न क्षणुयात्, नापि रजोहरणादिना तान् प्रमार्जयेत्। प्राणिनो देहमेव हिंसन्ति, न तु ज्ञानादि, अतो न तत्स्थानादन्यत्र यायात्। किन्तु आश्रवत्यागी तैर्भक्ष्यमाणोऽप्यमृतादिना तृप्यमाण इवाध्यासयेत्। आगमान् भावयन्
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________________ मृत्युकालस्य पारगामी स्यात्। व्रजेत् सिद्धिं सुरलोकं वेति भक्तपरिज्ञाविधिः। इङ्गितमरणं तु जघन्यतोऽपि नवपूर्वधरस्य संयमिनः। तत्र विशेषः-त्यजेदात्मवर्जमङ्गव्यापारम्। स्वयमेव चोद्वर्तनादिकायिकव्यापारं कुर्यात्। न हरितेषु शयीत, स्थण्डिलं मत्वा शयीत। सबाह्याभ्यन्तरमुपधिं व्युत्सृज्यानाहारतया सर्वमधिसहेत। इन्द्रियैग्ायमानः समतामात्मन्याहरेत्। हस्तप्रसारणोपविशनेङ्गितदेशसञ्चरणानि कुर्वाणोऽप्ययमगर्दाः, स्वप्रतिपन्नानतिक्र
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________________ मात्। धर्मशुक्लध्यानसमाहितोऽसाविन्द्रियाणि रागद्वेषाकरणतया प्रेरयेत्। पापत आत्मानमुत्क्रामयेत्। इतीङ्गितमरणम्। साम्प्रतं पादपोपगमनमाह-एतद्विधिर्यत्नेनाध्यवसितस्स्यात्। तत्र सर्वगात्रनिरोधेऽपि न द्रव्यभावोभयतः स्थानान्तरं यायात्। उत्तमोऽयं धर्मः। कष्टतरश्च पूर्वद्वयात्, सङ्कोचादिनिषेधात्। अचिरं स्थण्डिलं पूर्वविधिना प्रत्युपेक्ष्य मर्यादा पालयन् तिष्ठेत्। अचित्तं फलकादि समासाद्य तत्रात्मानं स्थापयेत्।
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________________ व्युत्सृजेत् कायं सर्वशः। चिन्तयेद्यथा न मे देहे परीषहाः, त्यक्तत्वाद्देहस्य, तत्कृतपीडयोद्वेगविरहाद्वा। यावजीवं परीषहा उपसर्गाश्चेति ज्ञात्वा देहभेदायोत्थितः प्राज्ञोऽधिसहेत। बहतरेष्वपि कामेषु न रज्येत्, भिदुरत्वात्तेषाम्। नापि निदानं कुर्यात्। संयमं मोक्षं वाऽपि प्रेक्षेत। न दिव्यमायां श्रद्दधीत। विधूनीयात् सर्वं कर्म। सर्वार्थेष्वमूर्च्छितो मृत्युकालस्य पारगस्स्यात्। तितिक्षा परमां ज्ञात्वा भक्तपरिज्ञादीनामन्यतरद् हितमतो विधेयम्।
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________________ उपधानश्रुतम् श्रीवीरप्रभुचर्या / / 1-9-1 // यथा श्रमणो भगवान् महावीर उत्थाय प्रव्रज्य विहरति स्म, तद् वदिष्यामि यथासूत्रम्। न लज्जया धृतं प्रभुणा देवदूष्यम्, यावत्कथं तादृशभावपारगतत्वात्तस्य, अपि त्वन्यतीर्थकृत्समाचीर्णत्वात्। साधिकमासचतुष्टयं यावद् बहवः प्राणिन आरुह्य तत्कायमहिंसन्। धृतमनेन साधिकमासं संवत्सरं यावत्तद्देष्यम्। ततोऽचेलको बभूव। नैके 79
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________________ गृहिणो तं हननादिना चक्रुरुपसर्गान्, न तु चचाल स ध्यानात्। गृहिभिः पृष्टोऽपृष्टो वा न वक्ति स्म। नातिवर्त्तते स्म मोक्षपथम्। दुष्करमेतदन्येषाम्। अनार्यदेशेषु तु हतोऽयं दण्डैः। लूषितश्च केशलुञ्चनैः। दुस्तितिक्षाण्यतिगत्य पराक्रममाणोऽसौ सम्यक् तितिक्षते स्म। न कौतुकं चकार नृत्यादौ। जगामासौ दुःष्प्रधृष्याणि दुःखान्यस्मरन्। गृहिवासेऽपि भगवान् साधिकवर्षद्वयं यावच्छीतोदकाद्यारम्भं परित्यज्य स्थितः, किम्पुनः प्रव्रज्यायाम् ? स
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________________ षटकायान् सर्वशो ज्ञात्वा परिहृत्य च चकार विहारम्। सोपधिको लुप्यते कर्मणेति तं प्रत्याख्यातवान्।। ज्ञात्वेर्यापथिकसाम्परायिकोभयकर्मबन्धमिन्द्रियश्रोतसं हिंसादिश्रोतसं च परिज्ञातवान्। सर्वपापोपादानभूतास्त्रियः परिज्ञातास्तेन। नासावाधाकर्मादि सेवते स्म, कर्मबन्धनसर्वप्रकारदर्शित्वात्। यत्किञ्चिदन्यदपि पापं परिहृत्य प्रासुकमुपभुक्तवान्। न सिषेवे परवस्त्रपात्राणि। अवगणय्यापमानं जगामाऽऽहाराय। नालम्बते स्म स
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________________ शरणम्, अपि तु कल्प इति कृत्वा परीषहविजयार्थं जगामेति। अशनादिमात्राज्ञोऽगृद्धो रसेष्वतिज्ञश्चक्षुरपि न प्रमार्जयति स्म। नापि चकार गावकण्डूयनम्। नापि पृष्टो मार्गादि जगाद। अपि तु यतमानो जगाम प्राणादिरहितमार्गे। शिशिरमध्ये व्युत्सृज्य वस्त्रं बाहुं प्रसार्य पराक्रमते स्म। इति भगवतश्चर्या। वसतिः // 1-9-2 // अथ तद्वसतिमाह-प्रायशो नास्य शय्याभिग्रहः। यत्र चरमपौरुषी तत्रा* 82
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________________ नुज्ञाप्य स्थितवानसौ शून्यगृहादिषु। एवं नक्तन्दिनमपि यतमानस्त्रयोदशवर्षाणि यावदप्रमत्तः समाहितमना ध्यायति स्म भगवान्। निद्राऽपि भगवतो द्वादशसंवत्सरेषु मध्येऽस्थिकग्रामेऽन्तर्मुहूर्तं यावत् सकृदेवाऽसीत्। यत्रापीषत् शय्या तत्राप्यप्रतिज्ञो भगवान्, शय्याभिप्रायाभावात्। सम्बुद्ध्यमानः पुनरपि संयमस्थानेनोत्थितवान्। शीतकाले बहिर्निष्क्रम्य तत्र मुहूर्त्तमानं ध्यानं कृत्वा निद्राप्रमादमपनीतवान्। आश्रयेष्वपि श्वापदपक्षिमनुष्यकृता भयानका बभूवुरुपसर्गाः।
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________________ तेषु भगवान् संयमारतिं भोगाभिष्वङ्गरतिं चाभिभूय प्रायो मौनी बभूव। परमतितिक्षा / / 1-9-3 // लाढेषु तु देशेष्वनेकोपद्रवोपद्रुतवसतिप्रभृति सेवितवान् भगवान् / ऋक्षकल्पमन्तप्रान्तं तत्र भुक्तवान्। कुर्कुरास्तस्योपरि निपेतुः। अल्पजनस्तत्र तान् निवारयति स्म, बहवस्तु चण्डप्रहारादिभिर्भगवन्तं हत्वा तत्प्रेरणाय सीत्कुर्वन्ति स्म, यथा दशेयुस्तं कुर्कुराः। एवंविधे जनपदे षण्मासावधिं कालं स्थितवान् भगवान्। यथा
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________________ सङ्ग्रामशीर्षे परानीकं जित्वा तत्पारगो भवति, एवं श्रीवीरोऽपि भगवान् लाढेषु परीषहानीकं विजित्य पारगोऽभूत्। न च वसत्यर्थं ग्रामोऽपि क्वचिदवाप्तस्तत्र भगवता। दण्ड-मुष्टि-लेष्टघटकप्पर-कुन्तप्रभृतिभिस्तेऽनार्या भगवन्तं हत्वा चक्रन्दुः। मांसान्यपि भगवतश्छिन्नपूर्वाणि। तत्कायामाक्रम्य नानाप्रकाराः परीषहाश्च भगवन्तमलुञ्चिषुः पांसुना वाऽवकीर्णवन्तः। ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य भगवन्तं भूमौ क्षिप्तवन्तः। आसनाद्वा वीरासनादिकान् निपातितवन्तः। भगवांस्तु पुनरपि व्युत्सृष्टकायः
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________________ परीषहसहनं प्रति प्रणत आसीत्। विरहितश्च दुःखचिकित्साप्रतिज्ञया। तपश्चर्या // 1-9-4 // रोगैरस्पृष्टोऽपि चकारासाववमोदरताम्। तत्स्पृष्टोऽपि नाभिलषति चिकित्साम्। न सिषेवेऽसौ विरेचनाभ्यङ्गनस्नानसम्बाधनदन्तप्रक्षालनानि। पराक्रमते स्मासौ विषयनिवृत्तः। शिशिरे छायायां ध्यायति स्म। आतापयति तु ग्रीष्मेषु। आसीदुत्कटु कासनस्तापाभिमुखम् / ऋक्षौदनादिद्रव्येण यापयति स्म देहम्। पानकमपि भगवानर्धमासं मासं मासद्वयं
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________________ साधिकषण्मासं वा यावन्न पीतवान्। षष्ठादितपोनिरतश्च बभूव। उद्गमादिदोषरहितं शुद्धाहारं गवेषितवान्। वर्जयाञ्चकार च ब्राह्मणादीनां श्वानादीनां च वृत्तिच्छेदम्। छद्मस्थोऽपि पराक्रममाणो भगवान्न सकृदपि कृतवान् प्रमादम्। एवं सुप्रणिहितमनोवाक्काय उपशान्तविष यकषायो भगवानत्रोक्तशस्त्रपरिज्ञादिसर्वविधिमनुष्ठितवान्, यत्रात्मशुद्धिरनिदानभावो ज्ञानचतुष्टयं च सहवर्तिनो बभूवुरिति।
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________________ पिण्डैषणा // 2-1-1 // भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा गृहिकुलं भिक्षार्थ गत्वा प्राणादिसंसक्तं जानीयादशनादिकम्, तदा तदप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात्। अनाभोगगृहीतं तु शुद्धस्थण्डिले त्यजेत्, उन्मिश्रं च विशोधयेत्। यच्चापि भोक्तुं पातुं वा न शक्नुयात्, तदपि दग्धस्थण्डिलादौ परिष्ठापयेत्। नान्यतीर्थिकादिभिः सह भिक्षा-बहि
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________________ भूम्यादौ प्रविशेन्निष्क्रमेद्वा। नान्यतीर्थिकेभ्योऽशनादिकं दद्याद्दापयेता। वर्जयेदुद्दिष्टक्रीतोच्छिन्नकाच्छेद्यानिसृष्टाभ्याहृतदोषदुष्टमशनादिकम्। परिहरेन्नित्यपिण्डादिदानपराणि कुलानि। एवमेव भिक्षोर्वा भिक्षुण्या वा सामग्यं यत् सर्वाथैः समितः सहितः सन् सदा यतेत। // 2-1-2 // पर्वनिमित्तं श्रमणादिभ्यः पिठरकादूखाभ्यां परिविष्यतेऽपुरुषान्तरकृतं तन्न प्रतिगृह्णीयात्, इतरत्तु प्रतिगृह्णीयात्।
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________________ उग्रादिकुलेभ्योऽजुगुप्सितेभ्योऽशनादिकं प्रतिगृह्णीयात्। नार्धयोजनादुर्ध्वं भिक्षार्थं गच्छेत्। तदन्तरपि वर्जयेत् सङ्खडिम्, अनादरेण त्यजेत् सखडिदिशमपि तद्ग्रामादिकमपि। सम्भाव्यन्ते हि सङ्खड्यामध:कर्माद्यनेकदोषाः। // 2-1-3 // किञ्च सङ्खड्यामधिकप्रतिग्रहणेन वमनादिदोषा रोगोदयश्च। अतः कर्माश्रवनिमित्तं सङ्खडीति केवलिवचनम्।
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________________ अपि च सम्भाव्यते सङ्खड्यां मद्यपानं नष्टचित्तता ब्रह्मभङ्गश्चेति वर्जनीया सा। तथा तया सामुदानिकभिक्षागवेषणाऽऽलस्यम्, मायोदयश्चातस्तांत्यक्त्वा सामुदानिकभिक्षेतरेतरकुलेभ्य आनीय भोक्तव्या। अपरेऽपि पादाक्रान्तिविक्षोभ-अभिघात-जलावसेक - रजःपरिघर्षणादयश्च दोषास्तस्यां ज्ञेयाः। अतो न विचारणीयमपि तस्यां गमनम्। कल्प्याकल्प्यगोचरशङ्कागोचरं न ग्राह्यम्। सर्वोपकरणसहितो भिक्षुर्गृहिकुलेष्वन्यत्र वा गच्छेत्। वर्षा
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________________ रजःसमुद्घाततिरश्चीनसम्पातेषु न निर्गन्तव्यम्। स्थविरकल्पस्थो निर्गच्छेत् कारणेन, न तु सर्वोपकरणमादाय। वर्जनीयानि क्षत्रियराजकुलानि। // 2-1-4 // परिहरेत् प्राणि-बीज-हरितादि-बहुलमार्गान् आकीर्णवृत्तियुतकुलानि च, यत्र गच्छतोऽसंयमः वाचनादिस्वाध्यायपञ्चकव्याघातश्च। न गोदोहने रन्धने वा क्रियमाणे प्रविशेद् भिक्षुः, अपि तु सम्पन्ने तत्कायें। असम्पन्ने
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________________ तिष्ठे दसावेकान्तेऽनापातेऽसंलोके / क्षुल्लकं सूतकादिनिरुद्धं ग्रामं विहाय बहिर्गामेष्वटितव्यम्। परिवर्ण्य ज्ञातिस्वजनपिण्डगाद्धर्यमितरेतरकुलेभ्यः सामुदानिका भिक्षा गवेष्या। // 2-1-5 // अग्रपिण्डोत्क्षेपादिकं दृष्ट्वा तल्लिप्सयाऽन्यश्रमणादिस्पर्धया भिक्षुर्न शीघ्रं गच्छेत्, मायास्पर्शप्रसक्तेः। वप्रादिपरिहारेणान्यर्जुमार्गेण गच्छेत्, अन्यथा पतनादिदोषानुषङ्गात्। मार्गान्तरविरहात्तेन गच्छता पतितेन मलादिलिप्तेन
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________________ न संस्निग्धपृथिव्याधुपयोगेन तत्प्रमार्जनादिकं कर्त्तव्यम्, अपि त्वचित्ततृणादिना। ऋजुमार्गस्थं बलीवर्दादिकं दृष्ट्वा तन्मार्ग परिहृत्य संयमेनान्यमार्गेण गन्तव्यम्। त्याज्यश्चावपातस्थाणुकण्टकादियुतो मार्गः। गृहिकुलद्वारभागं कण्टकशाखापिहितं दृष्ट्वा नाननुज्ञाप्याप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्योद्घाटन-प्रवेश-निष्क्रमाः कार्याः। न पूर्वप्रविष्टं श्रमणादिकं दृष्ट्वा तत्संलोके तिष्ठेत्, किन्त्वेकान्तेऽनापातसंलोके। न च सर्वश्रमणेभ्यो दत्तमात्मीयमात्रतया
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________________ विभावयेत्, मायाप्रसक्तेः। उत्सर्गतस्तु सर्वजनार्थनिसृष्टं न ग्राह्यमेव। अपवादतो गृह्णन्नपि नात्मार्थं प्रचुर स्निग्धं गाय॑मुपगच्छन् प्रतिगृह्णीयात्, अपि तु बहसममेव परिभाजयेत भुञ्जीत वा। पूर्वप्रविष्टश्रमणादिकं दृष्ट्वाऽनापातसंलोके प्रतीक्ष्य प्रतिषिद्धे दत्ते वा तस्मिन् निवृत्ते प्रविशेत्। // 2-1-6 // न गृहिकुलद्वारशाखामवलम्ब्य तिष्ठेत्। नाचमनस्थानादौ स्नानवर्च:स्थानसंलोके वा तिष्ठेत्। न गवाक्षादिकं
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________________ सज्ञादिपुरस्सरं पश्येत्। नाङ्गल्योद्दिश्य तर्जयित्वा स्पृष्ट्वा वा याचेत। न वन्दित्वा याचेत। नालाभे परुषं वदेत्। यदि दायको दादेरुत्क्षालनादिकं कृत्वा दद्यात्, तदा तं प्रतिषेधयेत्, न पुरःकर्मयुतहस्तमात्रादिना दीयमानं प्रतिगृह्णीयात्। एवमुदकार्दादिष्वपि ज्ञेयम्। तज्जातीयाहारसंसृष्टहस्तादिना दीयमानं प्रासुकैषणीयं प्रतिगृह्णीयात्। वर्जयेदग्निनिक्षिप्तमशनादिकम्। // 2-1-7 // परिहरेन् मालोपहृतं कोष्ठाद्याहृतं च,
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________________ पतनादिप्रसक्तेः। न गृह्णीयान्मृत्तिकाद्यवलिप्तभाजनगतम्, उद्घाटने पश्चात्कर्मणि च षट्कायविराधनाप्रसक्तेः। अत्युष्णमाहारादिकं यदि वस्त्रादिना वीजनं कृत्वा दद्यात्तदा तन्न ग्राह्यम्। न वनस्पत्याद्युपरि निक्षिप्तमपि ग्राह्यम्। तन्दुलोदकादिकं पानकमप्यपरावर्तितवर्णादितयाऽशस्त्रपरिणतं ज्ञात्वा न ग्राह्यम्। // 2-1-8 // सास्थिकं सबीजं वाऽऽम्रादिपानकं न ग्राह्यम्, अप्रासुकत्वात्।
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________________ नागन्त्रागारेषुगन्धेषु मूछौं कुर्वीत मुनिः। वर्जयेत् पिप्पल्यादिकमप्यशस्त्रपरिणततयाऽऽमकमप्रासुकम्। // 2-1-9 // गृहिभिः स्वार्थमुपस्कृतमपि सर्वं यदि दीयते तन्न ग्राह्यम्, पुना रन्धनादिप्रसक्तेः। यत्र पूर्वसंस्तुता मात्रादयो वसेयुस्तत्र नाकाले भिक्षार्थं गच्छेत्। अधःकर्मादिदोषानुषङ्गात्। न सुरभिं भुक्त्वा दुर्गन्धं परिष्ठापयेत्, मायास्पर्शप्रसक्तेः। एवं वर्णादिसम्पन्नेतरयोरपि द्रष्टव्यम्। भुजेत सर्वमपि न किञ्चित् 98 ""
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________________ परिष्ठापयेदिति हृदयम्। बहलब्धं भोजनमपि न साधर्मिकाननालोकय्यानापृच्छ्यानामन्त्रय्य परिष्ठापयेत्, मायापाशप्रसङ्गात्। न परं समुद्दिश्य बहिर्निहृतमनिसृष्टमप्रासुकं प्रतिग्राह्यम्। // 2-1-10 // भिक्षुः पिण्डं प्रतिगृह्य साधर्मिकाननापृच्छ्य यस्मै यस्मै इच्छति, तस्मै तस्मै प्रभूतं प्रभूतं यदि प्रयच्छति तदा मायास्पर्शः, अतो नैवं कार्यम्। अपि तु तद् गृहीत्वाऽऽचार्यादिसमीपे गत्वा तानापृच्छ्य यथा ते वदन्ति तथा
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________________ कार्यम्। न लोभेन किञ्चिन्निगृहयेद्यथा मा ममैतद्दर्शितं सद् दृष्ट्वाऽऽचार्यादिः स्वयमाददीतेति। किन्तु प्रत्येकमालोचयेदिदममुकमिदममुकमिति। न किञ्चिदपि निगृहयेत्। न भद्रकं भद्रकं भुक्त्वा विवर्णं विरसमाहरेत्, मायास्थानस्पर्शप्रसक्तेः। इक्षुप्रभृतिकमल्पभोज्यं बहुत्याज्यमतो न ग्राह्यम्। // 2-1-11 // न ग्लानाय प्रतिगृहीतं कृत्वा स्वयं भुञ्जीत। जानीयाद् भिक्षुः सप्त पिण्डैषणाः सप्त पानैषणाश्च। तेषु सप्त
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________________ (.. A A पिण्डैषणाः (1) असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टो मात्रश्च, एवंविधेनासंसृष्टेन हस्तेन मात्रेण वा दीयमानं प्रासुकमशनादिकं गृह्णीयात्। (2) संसृष्टो हस्तो मात्रश्च शेषं तथैव। (3) भाजनेषूपनिक्षिप्तपूर्वं हस्तमात्रान्यतरेण संसृष्टेनासंसृष्टेन वा प्रासुकं गृह्णीयात्। (4) पृथुकादिग्रहणरूपाऽल्पलेपा। (5) अवगृहीतमेव भोक्तुकामस्योपहृतमेव शरावादौ भोजनम्, तद्ग्रहणरूपाऽवगृहीता। (6) पिठरकादेरुद्धृत्य चटुकादिनोत्क्षिप्तं स्वार्थं प्रगृहीतं यद् भोजनम्,
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________________ तदग्रहणरूपा प्रगृहीता। (7) यदन्ये द्विपदादयो नावकाङ्क्षन्ते तदुज्झितधर्मिकं भोजनम्, तदग्रहणरूपोज्झितधर्मिका। एवं पानैषणा अपि द्रष्टव्याः। तद्विशेषस्तु चतुर्थ्यां स्वच्छत्वादल्पलेपत्वम्, ततश्च संसृष्टाद्यभाव इति। गच्छान्तर्गतानां सप्तानामप्यनुज्ञातं ग्रहणम्। तन्निर्गतानामाद्ययोर्द्वयोरग्रहः, पञ्चस्वभिग्रहः। अन्यतरैषणाप्रतिपन्नाः सर्वेऽपि जिनाज्ञया समुत्थिताः, अतो न तेषां केषाञ्चिदपि प्रतिक्षेपः कार्यः, मदो वा।
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________________ शय्यषणा // 2-2-1 // वर्जयेत् साण्डप्राणादिकं समुद्दिष्टक्रीतादिदोषदुष्टं भिक्ष्वर्थकृतसंस्कारादिकं प्रतिश्रयम्। प्राक् साधूद्दिष्टमपि पश्चात् पुरुषान्तरार्पितं तु निर्दोषतया सेवेत। यदि मुन्युद्देशेन फलकादिकं वनस्पत्यादिकं वा स्थानात् स्थानान्तरं संहियते, तदा तत्प्रतिश्रयं परिहरेत्। न सेवेत मञ्च-मालादिस्थितं प्रतिश्रयम्। आगाढहेतुस्थितस्तु वर्जयेत्तत्र हस्तादिक्षालनमुच्चारादिव्युत्सर्गं च, पतना
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________________ दिदोषापत्तेः। स्त्रीपशुभक्तपानयुते न वसेत्, व्याध्युदयेन संयमात्मविराधनाप्रसक्तेः। सागारिके प्रतिश्रये गृहस्थानामाक्रोशादिकमग्निप्रज्वालनादिकमलङ्कारानलङ्कृतयुवत्यादिकं च दृष्ट्वा मन उच्चावचं सावधचिन्तनप्रवृत्तं च स्यात्, अतो वर्जयेत् सागारिकं प्रतिश्रयम्। अपि च तत्र गृहिणः पत्न्यादयस्तेजस्विपुत्रप्राप्त्यर्थमावर्त्तयेत् साधुं मैथुनार्थम्, अतस्त्यजेत्सागारिकं प्रतिश्रयम्।
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________________ // 2-2-2 // शुचिसमाचारा गृहिणो भिक्षुगन्धमसहमाना भोजनादिक्रमव्यत्यासादिकं कुर्युः, अधिकाशनाद्युपस्कारश्च ते भिक्ष्वर्थं कुर्युः, काष्ठक्रयादिकं तत्प्रज्वालनादिकं च ते भिक्ष्वर्थं कुर्युः, मुनेरपि तत्काङ्क्षादिदोषाः, अतस्त्याज्यः सागारिकः प्रतिश्रयः। किञ्च न कल्पते दृष्टचौरस्यापि मुनेस्तदागमनादिकं गृहिणो ज्ञापयितुम्। अपि चाभणने मुनावेव स्तेनशङ्का गृहिण इति न स्थेयं सागरिकप्रतिश्रये।
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________________ यत्र साण्डोदकादिकास्तृणपूजादयः, तं प्रतिश्रयं परिहरेत्। येष्वागन्त्रागारादिष्वभीक्ष्णं साधर्मिकाणामवपातस्ते त्याज्याः। मासकल्पादि कृत्वा भूयस्तत्रैव संवसतां कालातिक्रान्तक्रियारूपदोषः। द्वित्रिगुणादिकमन्यत्रानतिवाह्य तत्रैव भूयः संवसतामुपस्थानक्रियारूपदोषः। बहुश्रमणादिकानुद्दिश्य कृतेषु लोहकारशालादिकासु चरकादिभिः प्राग् व्यापारितासु संवसतामभिक्रान्तक्रियारूपोऽल्पदोषः। चरकादिभिरव्यापृतासु तु संवसतामनभिक्रान्तक्रि
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________________ यारूपदोषः, अकल्प्येयं वसतिः। गृहिभिः स्वार्थकृतलोहकारशालादिकं प्रतिश्रयतया दत्त्वा पुनः स्वार्थमन्यगृहाद्यारम्भः क्रियते, तदा तत्र वसतां वर्ण्यक्रियादोषः, अकल्प्येयं वसतिः। भिक्षुसमाचारानुरागिभिर्बहुश्रमणादिकमुद्दिश्य कृतासुशालादिकासु वसतां महावय॑क्रियारूपो दोषः, अकल्प्येयं वसतिर्विशोधिकोटिश्च। पञ्चविधश्रमणाद्यर्थमेव कल्पिता सावद्यक्रिया वसतिः, अकल्प्या विशोधिकोटिश्च। साधर्मिकं साधुमुद्दिश्य
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________________ षट्कायमहासमारम्भनिष्पन्नः छादनलेपनादिसंस्कृताः शीतोदकाग्निकायारम्भकृताः शालादिका महासावद्यक्रियाः। श्रमणाचारानुरक्तैरात्मार्थं षट्कायमहारम्भपूर्वकं कृताः शालादिका अल्पसावधक्रियाः, निरवद्येत्यर्थः। // 2-2-3 // अधःकर्मादिदोषदुष्टां वसतिं यदि श्राद्धाः छलनां कृत्वा ददन्ति, तदा सद्भावं प्रज्ञाप्य तत्प्रतिषेधः कार्यः। क्षुद्रद्वारिकादियुते प्रतिश्रये विकाले पुरो हस्तं प्रसारयता यतनापूर्वकं गन्तव्यम्।
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________________ आगन्त्रागारादिषु प्रतिश्रयस्वरूपं तत्स्वामिस्वरूपं च विचार्य तं याचेत। ततोऽनुज्ञाप्य वस्तव्यम्। वाच्यं च यथा यावन्तः साधर्मिकाः समागमिष्यन्ति तावतां कृते प्रतिश्रयं ग्रहीष्यामः, ततः परं विहरिष्यामः। न तु साधुपरिमाणं कथनीयम्, समुद्रस्थानीयत्वात्सूरीणाम्। ज्ञातव्ये शय्यातरनामगोत्रे, त्याज्यं च तद्गृहसत्कमशनादिकम्। परिहरेत् साग्न्युदकं प्रतिश्रयम्। यत्र गृहिकुलमध्यतो निर्गमपन्थाः, यत्र गृहिप्रभृतेरन्योऽन्याक्रोशः, मिथोऽभ्य
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________________ ङ्गनादिकं स्नानादिकं वा परस्परमद्वर्त्तनादिकं वा, नग्नीभूय मिथो मैथुनविज्ञापनादिकं वा, यत्र वा चित्रभित्त्यादिकम्, सोऽपि त्याज्यः प्रतिश्रयः। भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा संस्तारकान्वेषणाभिकाङ्क्षी परिहरेत् तं संस्तारकं योऽण्डजादियुतो गुरुकोऽप्रत्यर्पणीयो वाऽबद्धो वा। अथ संस्तारकान्वेषणे प्रतिमाचतुष्कम्- (1) उद्दिश्य वंशकटादिनिष्पन्नादिकान्यतरं संस्तारकं याचेत / (2) पूर्वमेव प्रेक्ष्य तद् याचेत
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________________ ) ستم (3) प्रतिश्रयस्थं संस्तारकं व्यापारयेत्, तदलाभे सर्वरात्रमुत्कटुको वा निषण्णो वाऽऽसीत। (4) पृथिवीशिलां काष्ठशिलां वेति यथासंस्तृतमेव याचेत संस्तारकम्, तदलाभे सर्वरात्रमुत्कटुको वा निषण्णो वाऽऽसीत। एतदन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानो नान्यप्रतिमास्थं हीलयेत्, जिनाज्ञाराधकत्वात्सर्वेषाम्। नाण्डादियुतः संस्तारकः प्रत्यर्पणीयः, तद्रहितस्तु प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्यातापय्य विधूय च यतनापूर्वं प्रत्यर्पणीयः।
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________________ OM मुनिः पूर्वमेव प्रत्युपेक्षेतोच्चारप्रसवणभूमिम्, अन्यथा विकाले पतनादिप्रसक्तेः। आचार्यादिस्वीकृतां भूमि मुक्त्वा संस्तरेच्छय्यासंस्तारकम्। संस्तीर्य च कायं प्रमृज्य तदुपर्यारोहणं कार्यम्। न शयानेनान्यहस्तादिस्पर्शः कर्तव्यः। उच्छ्वासादिकं कुर्वता पूर्वमेव हस्तेन मुखादिभागः परिपिधेयः। समविषमादिकायां शय्यायां समचित्तोऽधिवसेत्। न किञ्चिदपि ग्लायेत्।
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________________ ईर्या // 2-3-1 // अभ्युपगते वर्षावासे बहुजीवविराधनासम्भवात् सकष्टत्वाच्च गमनस्य न ग्रामानुग्रामं गच्छेदपि तु वर्षावासमुपलीयेत। यत्र ग्रामादौ स्थण्डिलादियोग्यभूमि-निर्दोषाशनादीनामभावः, यत्र च शाक्यादिश्रमणसङ्कीर्णता, दुष्करं च गमनागमनम्, तत्र नोपलीयेत वर्षावासम्। व्यतिक्रान्तेऽपि वर्षावासे यदि मार्गा बहप्राणास्तदा न गन्तव्यम्। ग्रामानुग्रामं गच्छन्
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________________ भिक्षुर्युगमानं प्रेक्षमाणस्त्रसादिप्राणिनो दृष्ट्वा पादमुद्धृत्याग्रतलेन गच्छेत्। पादं वितिरश्चीनं कृत्वा वा गच्छेत्। सत्यन्यमार्गे तु तेनैव गच्छेत्, न ऋजुना। न चौरादिस्थानमध्यतो गन्तव्यम्। अन्यथा मुनौ स्तेनशङ्का तत्सहायशङ्का वाऽज्ञानां स्यात्। ततोऽप्याक्रोशादिप्रसङ्गः। नाराजकतादियुतेभ्यो देशेभ्यो गन्तव्यम्, उक्तदोषानुषङ्गात्। अतोऽन्यमार्गे सति तेनैव गन्तव्यम्। नानेकदिनगमनीयमटवीमागं प्रपद्येत, वृष्ट्यादिभावे विराधनाप्रसङ्गात्। 114
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________________ नौसन्तार्योदकोल्लङ्घने वर्जयेत् क्रीतादिदोषदुष्टां श्रमणमुद्दिश्यकृतोत्सिञ्चनादिकां च नावम्। निर्दोषां तिरीश्चनसम्पातिमां विज्ञाय नावमनुज्ञाप्य गृहस्थं गत्वैकान्ते प्रत्युपेक्ष्य भाण्डकं कृत्वा तदेकतः प्रमृज्य कायं प्रत्याचक्षीत साकारं भक्तम्। तत एकं पादं जले कृत्वा, एकं पादं स्थले कृत्वा यतनयाऽऽरोहयेन्नावम्। न पुरतः पृष्ठतो मध्यतो वा नावमारोहयेत् बाहूर्वीकृत्याङ्गल्योद्दिश्यावनम्योन्नम्य वा पश्येत्। न च नौगतो भिक्षु वुत्क
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________________ र्षणादिप्रार्थनां स्वीकुर्यादपि तूपेक्षेत तूष्णीकः। न च प्लाव्यमानां नावं प्रेक्ष्य मुनिश्छिद्रादिकं दर्शयेदपि त्वनुत्सुकोऽबहिर्लेश्य एकान्तगतेनात्मना व्युत्सृजेत् समाधिना। ततो यतनया एव यथार्थं रीयेत्। एवं खलु सदा यतस्वेति ब्रवीमि। // 2-3-2 // यदि नौगतः कश्चिदन्यं वदेत्-भारितोऽयं मुनिः, अतः प्रक्षिपैनमुदके। तदा यदि मुनिश्चीवरधारी तर्हि क्षिप्रमेव वस्त्राणि पृथक् कुर्यात्, साराणि तु सुबद्धानि कुर्यात्, यथा सुखेनैव जलं तरति, 116
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________________ शिरोवेष्टनं वा कुर्यात्। स्वप्रक्षेपतः प्रागेव वदेत्-आयुष्मन् ! मा मामुदके प्रक्षिपत, अहं स्वयमेव नाव उदकेऽवगाहिष्ये। यद्येवं वदन्तं स सहसा प्रक्षिपेत्, तदा न सुमनाः स्यात्, नापि दुर्मनाः स्यात्, नोच्चावचं मनः कुर्यात्, न च तेषां वधाय समुत्तिष्ठेत्। अपि त्वौत्सुक्यादिरहितः समाहितस्सन् संयत एवोदके प्लवेत। प्लवमानो न हस्तादिस्पर्श विदध्यात्। नोन्मजननिमज्जने कुर्यात्, अपरथा चक्षुरादावुदकप्रवेशप्रसक्तेः। प्लवमानः श्रमं गच्छन् क्षिप्रमेव त्यजेदुपधिं
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________________ विशोधयेद्वा। न तु तदासक्तिं कुर्यात्। तीरं प्राप्तस्तत्र तिष्ठेत्। नोदकाकायप्रमार्जनादिकं कुर्यात्। न परैरुल्लापं कुर्वन् ग्रामानुग्रामं व्रजेत्। जङ्घासन्तार्ये तु जले प्रागेव कायं प्रमृज्यैकं पादं जले कृत्वैकं पादं स्थले कृत्वा संयत एव व्रजेत्। न हस्तादिस्पर्श कुर्यात्। नापि साताद्यभिलाषेण व्रजेत्। तीरप्राप्तश्चोक्तविधिमनुपालयेत्। विगतोदकं कायं दृष्ट्वा संयत एव व्रजेत्। न कर्दमादिलिप्तपादप्रमार्जनाय
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________________ हरिता-दिबाधां कुर्यात्। वप्रादिपरिहरणं भिक्षाचर्यावद् ग्रामानुग्रामविहारेऽपि द्रष्टव्यम्। न सेनामध्यतो गन्तव्यम्। असत्यन्यमार्गे तेन गच्छतो यधुपसर्गादिकं भवेत्तदाऽपि परिहृत्य रागादि समाहितो व्रजेत्। न पथिकेभ्योः ग्रामादिस्वरूपं पृच्छेनापि तत्पृष्टस्सनुत्तरयेत्। // 2-3-2 // न वप्रादिकं बाहूत्क्षिप्याङ्गुल्योद्दिश्याव नम्योन्नम्य वा पश्येत्। नापि वनादिकम्,
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________________ मृगादित्रासप्रसक्तः।नाचार्यादिकैः सार्धं व्रजन् तद्धस्तादिस्पर्श कुर्यात्। न पथिकप्रश्नमुत्तरयत आचार्यादेरन्तर्भाषणं कुर्यात्। यथारत्नाधिकं व्रजेत्। यदि प्रातिपथिका मनुष्यबलीवर्दादिका दृष्टा न वेति प्रश्नं कुर्युस्तदा तूष्णीक उपेक्षेत। जानन्नपि नैव जानामीति वदेत्। एवं कन्दादिप्रश्नेष्वपि द्रष्टव्यम्। बलीवर्दादिकं दृष्ट्वा न भीत उन्मार्गेण गच्छेत्, न गहनादिकं जलं वा प्रविशेत्, नापि वृक्षमारोहयेत्, नापि वाटकादिकं
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________________ काङ्केतापि तु समत्वमनुपालयन् समाहितो यतनया व्रजेत्। एवं स्तेनसम्पातेऽपि ज्ञेयम्। न स्तेनचेष्टितं ग्रामादौ गत्वा प्रकाश्यम्, तत्स्तैन्यं वोपकरणादिगोचरम्। 121
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________________ NA भाषाजातम् // 2-4-1 // वचनाचारानिमान् श्रुत्वा जानीयादिमाननाचारान् पूर्वमुन्यनाचीर्णान्। क्रोधमान-माया-लोभप्रयुक्ता वाचाऽऽभोगानाभोगप्रयुक्ता परुषा भाषा च सावद्या, अतो विवेकमादाय वा। अशनादिप्राप्त्यप्राप्त्यादिविषये ध्रुवेतरभाषां जानीयात्। अनुविचिन्त्य सावधारणभाषी सन् समतया संयतो भाषां भाषेत। तद्यथा-(१) एकवचनम् (2) द्विवचनम् (3) बहुवचनम्
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________________ (4) स्त्रीवचनम् (5) पुरुषवचनम् (6) नपुंसकवचनम् (7) अध्यात्मवचनम् (8) उपनीतवचनम् (प्रशंसा) (9) अपनीतवचनम् (निन्दा) निन्दा) (11) अपनीतोपनीतवचनम् (निन्दा-प्रशंसा), (12) अतीतवचनम् (13) प्रत्युत्पन्नवचनम् (14) अनागतवचनम् (15) प्रत्यक्षवचनम् (एष देवदत्तः) (16) परोक्षवचनम् (स देवदत्तः) स एकवचनं वदिष्यामीति विवक्षयै
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________________ कवचनं वदे यावत् परोक्षवचनं वदिष्यामीति विवक्षया परोक्षवचनं वदेत्। जानीयाच्चत्वारि भाषाजातानि (1) सत्यम् (2) असत्यम् (3) सत्यमृषा (4) असत्यामृषा। एतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि वर्णादिवन्ति चयोपचयिकानि विपरिणामधर्माणि भवन्तीत्याख्यातानि तीर्थकृभिः। पूर्वं भाषाऽभाषा। भाष्यमाणैव भाषा। भाषासमयव्यतिक्रान्ता चाभाषा। चत्वार्यपि भाषाजातानि सावधसक्रियपरुषत्वादिकलङ्कितानि न वाच्यानि।
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________________ सत्याऽसत्यामृषा च भाषा भाष्या। न होलेत्याद्यवज्ञाशब्दा वाच्याः। अमुकायुष्मदित्यादिका भाषा वाच्या। न गगनादिकं देवतया भाषेत, नापि वृष्टिः पततु मा वेत्यादि भाषेत। अन्तरिक्षाद्यनवद्यशब्देन तु कारणवशेन वदेत्। एतत् खलु भिक्षोर्वा भिक्षुण्या वा सामग्यं यत् सर्वार्थैः समितः सदा यतेत। // 2-4-2 // न गण्डी-कुष्ठी-हस्तछिन्नेत्यादिशब्दान् वदेत्, कोपकारणत्वात्। वदेत्तु
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________________ तेजस्विप्रभृतिशब्दान्। न वप्रादीन् सुकृतत्वादिभिर्वदेत्, अपि त्वारम्भकृतत्वादिना। एवमशनादावपि ज्ञेयम्। न मनुष्य-पश्वादीन् स्थूलवध्यत्वादिना वदेत्, अपि तु परिवूढ इत्यादि, न गावो दोह्या इति, अपि तु रसवतीत्यादि, न दम्या गोरथका इति, किन्तु संवहका इति। उद्यानादौ महावृक्षान् दृष्ट्वा न प्रासादादियोग्या इति वदेत्, किन्तु जातिमन्त इत्यादि। न बहुफला इत्यादि,
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________________ अपि त्वसंस्तृता आम्रा इत्यादि। ओषध्यो न पक्वा इत्यादि, किन्तु रूढा इत्यादि। शब्दादयो यथा भवेयुस्तथाऽसावनवद्यभाषया भाषेत। परिहत्य क्रोधादीन् विचिन्त्य निश्चयपूर्वकं श्रुत्वाऽत्वरितं सविवेकं समतया संयतो भाषां भाषेत।
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________________ वस्त्रैषणा // 2-5-1 // भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा वस्त्रमेषितुमभिकाङ्क्षत, स ऊर्णादिनिष्पन्नं जानीयाद्वस्त्रम्। युवा बलवान् नीरोगी स्थिरसंहननो भिक्षुरेकं वस्त्रं धारयेत्, न द्वितीयम्। निर्ग्रन्थी सङ्घाटिचतुष्कं धारयेत्। एकां द्विहस्तविस्ताराम्, द्वे त्रिहस्तविस्तारे, एकां च चतुर्हस्तविस्ताराम्। तदलाभ एकमेकेन सार्धं सीव्येत्। नार्धयोजनात्परतो वस्त्रमेषितुं गन्तव्यम्। एकानेकसाधर्मिकादीनुद्दिश्य *128
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________________ कृतं वस्त्रं यथा न कल्पते तथा पिण्डैषणावदत्रापिज्ञेयम्। एवं क्रीतादिकं कृतरङ्गादिसंस्कारं प्रत्यपि ज्ञेयम्। पुरुषान्तरकृतं तु तत् प्रतिगृह्णीयात्। न महााणि चर्मनिष्पन्नानि वा वस्त्राणि प्रतिगृह्णीयात्। प्रतिमाचतुष्कमप्यत्रैवं ज्ञेयम्-(१) उद्दिष्टा (2) प्रेक्षिता (3) परिभुक्तप्राया (4) उज्झितधार्मिका। श्वस्तनदिने पञ्च-दशदिनानन्तरं मासानन्तरं वा वस्त्रं दास्याम इति वदन्तं ब्रूयात्न कल्पते मे प्रतिश्रोतुमेतां प्रतिज्ञाम्, यदीच्छसि दातुम्, इदानीमेव यच्छेति।
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________________ नापि स्तोकवेलानन्तरमागच्छेत्याद्यपि प्रतिशृणुयात्। यदि गृही स्वजनं वदेत्आहर तद्वस्त्रं श्रमणाय दत्त्वाऽऽत्मार्थमन्यत् करिष्याम इति, तदा तद्वस्त्रं न ग्राह्यम्, पश्चात् षट्कायविराधनाप्रसक्तेः। यद्यसौ धावनादि कृत्वा दातुमिच्छति, तदा स प्रतिषेध्यः, एवमेव यच्छेति वाच्यः, तथाप्यारम्भं कृत्वा प्रयच्छति, तन्न ग्राह्यम्। नाप्रतिलेख्य वस्त्रं ग्राह्यम्, यतः कुण्डलादि हरितादि वा तत्प्रान्ते बद्धं सम्भाव्यते। त्यजेदण्डादियुतमध्रुवत्वादिदोषदुष्टं च वस्त्रम्। नवं वस्त्रं मे
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________________ नास्तीति कृत्वा तत्प्रक्षालनादिसंस्कारो न कार्यः। वस्त्रास्यातापनादि कर्तुमिच्छर्न सचित्तपृथिव्यादौ तत् कुर्यात्। नापि स्थूणादावन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे वा कुर्यात्। अपि त्वेकान्तमपक्रम्याधोदग्धस्थण्डिलादौ प्रत्युपेक्षणं प्रमार्जनं च कृत्वा कुर्यात्। // 2-5-2 // यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत, धारयेच्च यथापरिगृहीतानि। न धावनादिकं कुर्यात्। भिक्षाचर्यादौ सर्वत्र सर्वं वस्त्रमादाय गमनागमनं कार्यम्, अन्यत्र
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________________ वर्षादेरिति पिण्डैषणावद्विज्ञेयम्। यदि कश्चिदन्यमुनिः स्ववस्त्रं याचित्वैकाक्यन्यत्र व्रजेत्, एकादिदिनानन्तरं चागत्य प्रत्यर्पयेत्तदा तन्न ग्राह्यम्, उपहतत्वात्। प्रत्यर्पितं तु खण्डशः कृत्वा परिष्ठापयेत्, न तु परिभुञ्जीत। न च वस्त्रलिप्सयोपेत्यैवं कस्यचिद्वस्त्रस्योपघातः कार्यः, मातृस्थानस्पर्शप्रसक्तेः। न वस्त्रेषु वर्णपरावर्त परस्परदानं वा कुर्यात्। वस्त्रामोषकप्रसङ्गकर्तव्यता चर्यावद्विज्ञेया।
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________________ MINA पात्रैषणा // 2-6-1 // भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा पात्रमेषितुमभिकाङ्केत। सोऽलाबुपात्रं काष्ठपात्रं मृत्तिकापात्रं वा जानीयात्, तत् तरुणो नीरुग् बलवान् स्थिरसंहननो मुनिरेकं पात्रं धारयेत्, न द्वितीयम्। अन्यदप्यत्रोद्दिष्टादिवर्जनं पिण्डैषणावस्त्रैषणावद्विज्ञेयम्। प्रतिमाचतुष्कमप्यत्र वस्त्रैषणावत्। यदि गृही रिक्तं पात्रं दातुमनिच्छु
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________________ रशनाद्युपस्कृत्य तेन सम्पूर्य दातुमिच्छति तदा स प्रतिषेध्यः। एवमेव च मार्गणीयम्। तथाप्यधःकर्मनिष्पन्नभोजनयुतं पात्रं यदि प्रयच्छति, तदा तन्न ग्राह्यम्। नाप्रतिलेखितं पात्रं स्वीकर्त्तव्यम्, प्रागुक्तदोषात्। अन्यदप्यत्र वस्त्रैषणावत् संस्कारवर्जनादिकमूह्यम्। // 2-6-2 // गृहिकुलं पिण्डार्थं प्रविशन् पूर्वमेव प्रत्युपेक्षेत पात्रम्, तत्र च यदि प्राणिनः पश्येत्ततस्तानाहृत्य त्यक्त्वा रजश्च 134
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________________ प्रमृज्य संयत एव प्रविशेन्निष्क्रामेद्वा। अनाभोगादिना दीयमानमप्रासुकं जलं न ग्राह्यम्। कथञ्चित् प्रतिगृहीतं क्षिप्रमेव दातुरुदकभाजने क्षिपेत्। अनिच्छतः कूपादौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापनविधिना त्यजेत्। तदभावे सस्निग्धायां भूमौ त्यजेत्। सत्यन्यभाजने सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुञ्चेत्। न सस्निग्धपात्रस्य प्रमार्जनादिकं कुर्यात्। सर्वं पात्रमादाय भिक्षाचर्यादौ गन्तव्यम्, अन्यत्र वर्षादेरिति वस्त्रैषणावत्।
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________________ अवग्रहप्रतिमा // 2-7-1 // प्रत्याख्यातादत्तादानो भिक्षुः कृतकारितानुमतिभिस्तत् त्यजेत्। न साधर्मिकाणामपि दण्डाद्यननुज्ञाप्य गृह्णीयात्, अप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य च। आगन्त्रागारेष्वनुचिन्त्यावग्रहो याच्यः, यथा-कामं खल्वायुष्मन् ! यथाकालावधि यावत् क्षेत्रमनुज्ञातं यावदायुष्मतोऽवग्रहः, यावन्तःसाधर्मिका आयान्ति तावत्क्षेत्रमाश्रित्यैतावन्मात्रमवग्रहम
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________________ वग्रहीष्यामः, ततः परं विहरिष्यामः -इति। स्वयमानीतेनाशनादिनोपनिमन्त्रयेत्तत्रागतान् साम्भोगिकान् साधर्मिकान्। असाम्भोगिकांस्तु समायातान् स्वयमानीतेन पीठफलकादिनोपनिमन्त्रयेत्। गृहिसत्कं सूच्यादिकं व्यापृत्य न मिथो देयम्, अपि तु प्रत्यर्पणीयम्, तत्र गत्वा हस्तं प्रसार्य भूमौ मुश्चेत्, कथयेच्च युष्मदीयमिदम्, न तु स्वहस्तेन परहस्ते प्रत्यर्पयेत्। सचित्तपृथिव्यादिस्थितम्, स्थूणादौ व्यवस्थितम्, कुड्यादिस्थं
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________________ वाऽवग्रहं नावगृह्णीयात्। वर्जयेत् सागारिक-क्षुल्लक-पशु-भक्तपानसहितमवग्रहमित्यादि शय्यावद्विज्ञेयम्। // 2-7-2 // अवगृहीतेऽवग्रहे न तत्रस्थानि श्रमणादिसत्कछत्रादीनि बहिर्भागादन्तरन्त र्भागाद्वा बहिः सङ्क्रामयेत्। नापि सुप्तं श्रमणादिकं प्रतिबोधयेत्। न च तेषां किञ्चिदप्यप्रीतिकं प्रत्यनीकतां वा कुर्यात्।
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________________ आम्रवणे गृहीतावग्रहो भिक्षुर्वर्जयेदण्डादियुततयाऽप्रासुकमाम्रादिकम्। एवमिक्षुवणादिकं प्रतीत्यापि ज्ञेयम्। अथावग्रहप्रतिमासप्तकम्- (1) अनुचिन्त्यैवम्भूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यः, नान्यथाभूतः। (2) अहमन्यकृतेऽवग्रह याचिष्यामि, अन्यावग्रहे च वत्स्यामि। (3) अन्यार्थमवग्रहं याचिष्ये, नान्यावगृहीते स्थास्यामि। (4) नान्यकृते याचिष्ये, वत्स्यामि त्वन्यावगृहीते (5) याचिष्ये मत्कृते, नान्यकृते। (6) यदीयमवग्रहमवग्रहीष्यामि, तदी
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________________ यमेव संस्तारकं ग्रहीष्यामि। अपरथोत्कटुको निषण्णो वा रजनी गमिष्यामि। (7) अनन्तरवत्, नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि, नेतरत्। सर्वेऽप्येते जिनाज्ञाश्रिताः, अतो नापरं हीलयेत्। स्थविरैर्भगवद्भिः पञ्चविधा अवग्रहाः प्रज्ञप्ताः(१) देवेन्द्रावग्रहः (2) राजावग्रहः (3) गृहपतेरवग्रहः (4) सागारिकावग्रहः (5) साधर्मिकावग्रहः।
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________________ स्थानम् (प्रथमा सप्तिका) // 2-8 // भिक्षुर्वा भिक्षुणी वाऽभिकाङ्केत स्थानं स्थातुम्। स ग्रामादौ प्रविश्य यदण्डादियुतं स्थानं तन्न गृहणीयात्। एवं शय्यागमेन नेयम्। अत्र प्रतिमाचतुष्कम्(१) अचित्तं स्थानमुपस्रक्ष्याम्यहम्। तत्राचित्तं कुड्यादिकमवलम्बयिष्ये कायेन। करिष्यामि हस्तपादाद्याकुञ्चनादिरूपाणि विपरिकर्माणि, तथा तथैव स्तोकपादविहरणरूपं सविचारं स्थानं स्थास्यामि। (2) सैव सविचारस्थानरहिता।
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________________ (3) सैव कायावलम्बनतोऽपि रहिता। (4) सैव विपरिकर्मतोऽपि रहिता। चरमायां व्युत्सृष्टकायो न चलति केशाद्युत्पाटनेऽपि। न हीलयेदन्यतरप्रतिमागमिति प्राग्वत्।
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________________ निषीधिका (द्वितीया सप्तिका) // 2-9 // स्वाध्यायभूमावपि साण्डादित्यागः प्राग्वत्। व्यादयो मुनयस्तत्र गतास्त्यजेयुर्मिथ आलिङ्गनप्रभृति।
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________________ AMIN उच्चारप्रसवणे (तृतीया सप्तिका) // 2-10 // उच्चारप्रस्रवणक्रिययोद्बाध्यमानो भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा स्वकीयमात्रकाद्यभावे साधर्मिकं याचेत। स्थण्डिलगोचरमपि साण्डोद्दिष्टादिपरिहरणं शय्यावन्नेयम्। यत्र गृहिप्रभृतिभिः कन्दादीनां प्रतिसंहरणं परिशाटनं वा कृतं क्रियमाणं करिष्यमाणं वा जानीयात्, तत्र नोच्चारादिव्युत्सर्ग कुर्यात्। यत्र रन्धनस्थानानि, महिष्यादिपशुपक्षिस्थानानि, उद्बन्धनादिस्थानानि आरा
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________________ मोद्यानवनखण्डदेवकुलादीनि, अट्टालकादीनि, त्रिकचतुष्कादीनि, अङ्गारदाहादीनि, नद्याद्यायतनानि, खातनूतनमृत्तिकादीनि, शाकादिवनस्पतिविशेषाः शणादिवनानि वा पत्राद्युपेतानि जानीयात्, तत्र नोच्चारादि व्युत्सृजेत्। मात्रकमादायापक्रम्यैकान्तमनापातेऽसंलोके प्राणादिरहित आरामे प्रतिश्रये वा संयत एवोच्चारादि व्युत्सृजेत्। ततस्तन्मात्रकमादायैकान्तमपक्रम्यानाबाधे प्रासुके दग्धस्थण्डिलादावचित्ते संयत एवोच्चारादि व्युत्सृजेत्।
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________________ शब्दः (चतुर्थी सप्तिका) // 2-11 // मृदङ्गादेर्वीणाप्रभृतेस्तालादेः शङ्खप्रभृतेश्च शब्दान् श्रुत्वा न तच्छ्रवणाय गन्तुमिच्छेत्। एवं वप्रादि-कच्छादिग्रामादि-आरामादि-अट्टादि-त्रिकादिमहिषीसत्कस्थानादि-महिषयुद्धादियूथिकस्थानादि-शब्दान् श्रुत्वा तत्र गन्तुं नेच्छेत्। तथाऽऽख्यायिकादिस्थानानि कलहादीन् विभूषितकन्यां बहशकटादीनि स्त्र्यादीनि वा श्रुत्वा न तत्र गन्तुमिच्छेत्।
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________________ मनुष्यादिकृतेषु पारापतादिकृतेषु श्रुतेष्वश्रुतेषु दृष्टेष्वदृष्टेषु कान्तेषु शब्देषु न रागं गच्छेत्, न गाद्धय प्रतिपद्येत, न मुह्येत्, नाप्यध्युपपन्नो भवेत्। 147
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________________ रूपम् (पश्चमी सप्तिका) // 2-12 // भिक्षुर्वा भिक्षुणी वा कानिचिद्रूपाणि पश्येत्, तद्यथा ग्रथितानि वेष्टितानि पूरिमाणि सङ्घातिमानि, चोलकादीनि, काष्ठकर्माणि, लेप्यकर्माणि, पत्रच्छेद्यकर्माणि, विविधानि वेष्टितानि, अन्यतराणि वा विरूपरूपाणि, तदा तद्दर्शनाभिलाषेण गन्तुं नेच्छेत् / अन्यदप्यत्र शब्दगमेन नेयम्। __ 148
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________________ परक्रिया (षष्ठी सप्तिका) // 2-13 // आत्मनि क्रियमाणां कर्मसंश्लेषजननी परकायव्यापाररूपां क्रियां मनसा नाभिलषेत, नापि वाचा कायेन वा तां कारयेत्। कश्चिन्मुनेः पादौ कायं वाऽऽमृज्यात् प्रमृज्याद्वा, तत्सम्बाधनपरिमर्दन-स्पर्शम्रक्षणा-ऽभ्यङ्गनोद्वर्त्तनो-तक्षालन-प्रक्षालन-विलिम्पन-धूपनानि वा कुर्यात्, ततः कण्टकादिकमुद्धरेत्, शोणितादिकं वा निस्सारयेत्, शरीरस्थगण्डादेर्वाऽऽमर्ज
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________________ नादिकं कुर्यात्, शस्त्रेण तच्छेदनादिकं कृत्वा शोणितादिकं निस्सारयेत्, स्वेदाक्षिमलप्रभृति विशोधयेत्, वालरोमसंस्कारं कुर्यात्, शीर्षतो लिक्षादि वाऽपनयेत्, अलङ्कृतं वा हारादिभिः कुर्यात्, शुद्धाशुद्धवचोबलेन मन्त्रादिसामर्थ्यरूपेण सचित्तकन्दादिना वा चिकित्सां कुर्यात्-तदेतत् सर्वमपि मुनिर्न मनसाऽभिलषेत्, नापि वाचा कायेन वा कारयेत्। कटुवेदनाः परेषां कृत्वा जीवा अनन्तगुणां वेदयन्ति वेदनामिति परिभावयताऽप्रतिकर्मशरीरेण भाव्यम्।
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________________ ....... अन्योऽन्यक्रिया (सप्तमी सप्तिका) // 2-14 // अन्योऽन्यपदादेरामर्जनादेरभिलाषादिपरिहारः परक्रियावन्नेयः।
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________________ ک ماری (2) سا भावना // 2-15 // तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः पञ्चहस्तोत्तरोऽभवदित्यादि चरमतीर्थपतिश्रीवीरचरितं सुप्रसिद्ध कल्पसूत्रादौ। श्रमणो भगवान् महावीर उत्पन्नज्ञानदर्शनधरो गौतमादिश्रमणनिर्ग्रन्थानां पञ्चमहाव्रतानि सभावनानि षड्जीवनिकायांश्च प्ररूपयाश्चकार। तद्यथा पृथिवीकायान् यावत् त्रसकायान्।
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________________ प्रथममहाव्रते सूक्ष्मादिजीवातिपातस्य यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन त्यागः, पूर्वकृतस्य प्रतिक्रमणादि। तद्भावनापञ्चकम् (1) इर्यासमितिः (2) मनोगुप्तिः (3) वचोगुप्तिः (4) आदानसमितिः (5) दृष्टान्नपानग्रहणम्। एतावता महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितं पालितं तीर्ण कीर्तितमवस्थितमाज्ञयाऽऽराधितं भवति। द्वितीयमहाव्रते क्रोधादिना सर्वमृषावादस्य यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन त्यागः। प्राकृतप्रतिक्रमणादि च।
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________________ तद्भावनापञ्चकम् (1) अनुचिन्त्य भाषणम् (2) क्रोधपरिज्ञा (3) लोभपरिज्ञा (4) भयपरिज्ञा (5) हास्यपरिज्ञा। एतावतैतन्महाव्रतं सम्यक् कायेन स्पर्शितमित्यादि प्राग्वत्। तृतीये महाव्रते ग्रामादावल्पादिसर्वादत्तादानस्य यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन परिहारः। तद्भावनापञ्चकम् (1) अनुचिन्त्य मितावग्रहयाचनम् (2) अनुज्ञाप्य भक्तादिभोजनम् (3) एतावदेतावदवग्रहयाचनम् (4) अभीक्ष्णावग्रहयाचनम् (5) अनुचिन्त्य साधर्मिकेभ्यो मिताव*१५४
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________________ ग्रहयाचनम्। एतावतेत्यादि प्राग्वत्। तुर्ये महाव्रते दिव्यादिसर्वमैथुनस्य यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन त्यागः। प्राक्कृतप्रतिक्रमणादि च। तद्भावनापञ्चकम्- (1) स्त्रीकथात्यागः (2) स्त्रीरम्याङ्गेक्षणत्यागः (3) प्राग्रतस्मृतिवर्जनम् (4) अतिमात्रभोजनप्रणीतरसभोजनयोस्त्यागः। (5) स्त्रीषपढपशुसंसक्तशयनासनपरिहारः। एतावतेत्यादि पूर्ववत्। पञ्चमे महाव्रतेऽण्वादिसर्वपरिग्रहस्य यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन त्यागः। 155 :
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________________ प्राकृतप्रतिक्रमणादि च। तदभावनापञ्चकं मनोज्ञेतरेषु शब्दादिपञ्चसु रागद्वेषपरिहारेण नेयम्। न स्वेन्द्रियविषयप्राप्तशब्दाद्यवेदनं शक्यम्, रागद्वेषौ तु तत्र परिहरेत् भिक्षुरिति। एतावतेत्यादि प्रोक्तवत्। इत्येतैः पञ्चमहाव्रतैः पञ्चविंशत्या च भावनाभिः सम्पन्नोऽनगारो यथाश्रुतं यथाकल्पं यथामार्गं सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा पालयित्वा तीरयित्वा कीर्तयित्वाऽऽज्ञयाऽऽराधयिता च भवति।
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________________ विमुक्तिः // 2-16 // विज्ञोऽगारबन्धनमारम्भपरिग्रहौ च त्यजेत्, अनित्यत्वान्मानुष्यादेः। उपसर्गेषु स्मर्त्तव्यः सङ्ग्रामगतः कुञ्जरः। जनहीलनादौज्ञानी गिरिवन्निष्प्रकम्पोऽदुष्टचेतसा तितिक्षते, ज्ञानित्वादेव, निश्चयेन ज्ञानतितिक्षयोरनतिरिक्तत्वाच्च। माध्यस्थ्यमवलम्बमानो गीतार्थैः संवसेत्। अप्रियदुःखान् त्रसादिजीवानपरितापयन् सर्वंसहश्च महामुनिः, 157
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________________ सुश्रमणोऽयं समाख्यातः। अनुत्तरक्षान्त्यादिपदप्रणतस्य विनीततृष्णस्य ध्यायतो विदुषः समाहितस्य तपोदीप्तस्य मुनेस्तपः प्रज्ञा यशश्च वर्द्धते। सर्वजीवक्षेमपदानि महाव्रतानि जिनैरुक्तानि। दुष्कराण्यप्येतानि सर्वकर्मक्षयकराणि त्रिलोकीप्रकाशकानि च, तदभ्यासतः कैवल्योदयध्रौव्यात्। गृहिभिः सङ्गमकुर्वन् स्त्रीषु चासजन् परिव्रजेत्। त्यजेच्च पूजनम्। इहपरलोकानिश्रितः पण्डितः कामानां ** 158
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________________ वशं न गच्छेत्। इदमेव तत्पाण्डित्यं यत् स्ववशितेति हृदयम्। तथा विमुक्तस्य परिज्ञाचारिणो धृतिमतो दुःखक्षमस्य भिक्षोः पूर्वकृतं कर्म ज्योतिःसमीरितरूप्यमलवद् विशुद्धयति। निराशंसस्त्यक्तमैथुनो मुनिः परिज्ञासमये वर्तते। दुःखशय्यातोऽसौ तथा मुच्यते, यथा जीर्णत्वचः सर्पः। दुस्तरमहासागरोपमोऽयं संसारः, तत्परिज्ञाता तदन्तकृदुच्यते। कर्मबन्धमोक्ष
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________________ विज्ञाता तदन्तकृदुच्यते, तद्विज्ञानस्य तदुचितक्रियापर्यवसाननियमात्। इहपरलोकयोर्निर्बन्धो निरालम्बनः शरीराधनासक्तश्च विमुच्यते संसारगर्भादिपर्यटनादिति ब्रवीमि। मिथ्यास्तु दुरुक्तं मम, शोधयन्तु बहुश्रुताः। 160
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________________ इति कर्मारिशून्यनेत्रे (2068) वैक्रमेऽब्दे माघशुक्लत्रयोदशीतिथौ तपागच्छीयाऽऽचार्यदेवश्रीमद्विजय-प्रेम-भुवनभानु-पद्महेमचन्द्रसूरिशिष्य-कल्याणबोधिसूरिसञ्चिता प्रथमाङ्गसारसञ्चयरूपा आचाराङ्गोपनिषद्।
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________________ आचाराङ्गमहिमा साध्वाचारः खल्वय-मष्टादशपदसहस्रपरिपठितः। सम्यगनुपाल्यमानो रागादीन् मूलतो हन्ति।। आचाराध्ययनोक्तार्थ-भावनाचरणगुप्तहृदयस्य। न तदस्ति कालविवरं यत्र क्वचनाभिभवनं स्यात्।। - वाचकमुख्यः श्रीउमास्वातिभगवान् प्रशमरतौ।।११८,११९।।
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________________ Don't Miss it. বুঝিনিকা
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________________ - લાભાથી શ્રી સુભાનપુરા થે. મૂર્તિ. જૈન સંઘ | સુભાનપુરા, વડોદરા જ્ઞાનનિધિ માંથી લાભાર્થી બનવા બદલ | શ્રી સંઘ તથા ટ્રસ્ટીઓની ભૂરી ભુરી અનુમોદના