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महावीर और बुद्ध के विहार व वर्षावासों के समान क्षेत्र व समान ग्राम थे तथा अनुयायियों के समान गृह भी थे। महावीर ने बुद्ध से पूर्व ही दीक्षा ग्रहण की, कैवल्य लाभ किया एवं धर्मोपदेश दिया । उनका प्रभाव समाज में फैल चुका था । तब बुद्ध ने प्रारम्भ किया । बुद्ध तरुण थे, उन्हें अपना प्रभाव समाज में फैलाना था। महावीर का प्रभाव समाज में इतना जम चुका था कि नवोदित धर्मनायक बुद्ध से उन्हें कोई खतरा नहीं
लगता था ।
गोशालक ने महावीर के साथ ही साधना की थी । महावीर से दो वर्ष पूर्व ही गोशालक अपने आपको जिन, सर्वज्ञ व केवली घोषित कर चुके थे । गोशालक का धर्मसंघ भी महावीर से बड़ा था - - ऐसा माना जाता है । इस स्थिति में महावीर के लिए अपने संघ की सुरक्षा व विकास की दृष्टि से गोशालक की हेयता का वर्णन करना स्वाभाविक ही हो गया था ।
आगमों और त्रिपिटकों में किन्हीं किन्हीं धर्मनायकों के जीवन- प्रसंग यत्किंचित् रूप में मिलते हैं । ये सब भगवान् महावीर के समकालीन थे ।
१ - पकुध कात्यायन ( प्रक्रध कात्यायन)
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वे शीतोदक- परिहारी थे । उष्णोदक ही ग्राह्य मानते थे । ( धम्मपद अट्ठकथा, १-१४४) ककुद्ध वृक्ष के नीचे पैदा हुए- इसलिये 'पकुद्ध' कहलाये । बौद्ध टीकाकारों ने इन्हें पकुध गोत्री होने से पकुध माना है । पर आचार्य बुद्ध घोष ने प्रक्रुध उनका व्यक्तिगत नाम और कात्यायन उनका गोत्र माना है । ( धम्मपद अट्ठकथा १-१४४, संयुत्तनिकाय अट्ठकथा १-१०२ ) प्रक्रुष कात्यायन अन्योन्यवादी थे ।
२- अजित केशकम्बल - ये केशों का बना हुआ कम्बल धारण करते थे इसलिए केशकम्बली कहे जाते थे । इनकी मान्यता लोकायतिक दर्शन जैसी ही थी । बृहस्पति ने इनके अभिमतों को ही विकसित रूप दिया हो, ऐसा लगता है । अजित केशकम्बल उच्छेदवादी थे । शरीर के भेद के पश्चात् विद्वानों और मूर्खो का उच्छेद होता है ।
३ – संजय वेलट्ठिपुत्र - इनका नाम संजय वेलहिपुत्र ठीक वैसा ही लगता है ; जैसे गोशालक मंक्खलीपुत्र । उस युग में ऐसे नामों की प्रचलित परम्परा थी । आचार्य बुद्धघोष ने उसे वेल का पुत्र माना है । वे नष्ट होते हैं । मृत्यु के अनन्तर उनका कुछ भी शेष नहीं रहता । वे विक्षेपवादी थे ।
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४ - पूर्ण काश्यप - अनुभवों से परिपूर्ण मानकर इन्हें पूर्ण कहते थे । ब्राह्मण थे. इसलिए काश्यप | वे नग्न रहते थे और उनके अस्सी हजार अनुयायी थे। एक बौद्ध किंवदन्ती के अनुसार यह एक प्रतिष्ठित गृहस्थ के पुत्र थे । उन्होंने कहा – “वस्त्र का प्रयोजन लजानिवारण है और लज्जा का मूल पापमय प्रवृत्ति है । मैं तो पापमय प्रवृत्ति से
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१ - बौद्धपर्व ( मराठी ) पृ० १०, पृ० १२७ ।
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