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तत्पश्चात अपने पुत्रों को कहा कि - हे पुत्रो ! मैं अब जीवितव्य से उद्वेग को प्राप्त हो गया हूँ लेकिन अपने कुल का यह आचार है कि जो मरने की इच्छा करता है उसे स्वयं के कुटुम्ब को एक मंत्रोक्षित पशु देना चाहिए। व्यतः मुझे एक पशु को लाकर दो ।
ऐसा उसका वचन सुनकर पशु की तरह मंद बुद्धि वाले पुत्र हर्षित होकर एक पशु अपने पिता को लाकर दिया ।
बाद में उसके पिता ने स्वयं के अंग के ऊपर से पर ले लेकर उसके साथ में अन्न की चोली उस पशु को खुवायी। इस उपचार से वह पशु कुष्टी हो गया ।
ददौ विप्रः स्वपुत्रेभ्यस्तं हत्वा
पशुमभ्यदा । तदाशयमजानन्तो मुग्धा बुभुजिरेचते ॥ १०८ ॥ तीर्थे स्वार्थाय यास्यामीत्यापृच्छय तनयान् द्विजः । यदाasi मुखोऽरण्यं शरण्यमिष चिन्तयन् ॥ १०६ ॥
अत्यन्त तृषितः सोऽटम्नटव्यां पयसे अपश्यत् सुहृदमिव देशे
नानाद्रुमे
नीरं तीरतरुस्रस्तपत्र पुष्पफलं ग्रीष्ममध्यदिनाक'शु कथितं सोऽपाद्यथा यथा चारि भूयो तथा तथा विदेकोऽथ तस्याभूत्
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क्वाथवत्
तीर ऊपर के वृक्षों के ऊपर से व्याप्त और दिवस के सूर्य की किरणों से के लिए तैयार हुआ |
विरम् |
हृदम् ।। ११० ।
द्विजः
बाद में वह विप्र उन पशु को मारकर स्वयं के पुत्रों को खाने के लिए दिया । मुग्ध अज्ञानी पुत्र पहले उनका आशय जाने बिना उससे खा गये ।
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पपौ ॥ १११ ॥
भूयस्तृषातुरः । कृमिभिः सह ॥ ११२ ॥
-- त्रिशलाका० पर्व १० | सर्ग ६
इसके बाद 'मैं अब तीर्थ जाऊँगा । ऐसा कहकर और अपने पुत्रों की आज्ञा लेकर वह ब्राह्मण अरण्य का शरण लेकर वहाँ से चला गया। मार्ग में अत्यन्त तृष्णातुर होने के कारण वह अटवी में जल की खोज करने के लिए इधर-उधर घूमने लगा । फलस्वरूप विविध वृक्षवाले प्रदेश में मित्र की तरह एक जल का घर उसके देखने में आया ।
पड़ते हुए अनेक जाति के पत्र, पुष्प और फलों से उकला हुआ उनका जल उसने काथ की तरह पीने
उसने जैसे-जैसे तृषातुर रूप में उनका जल पिया, वैसे-वैसे कृमियों के साथ रेन्च
लगने लगा ।
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