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( ३७१ ) संतापमात्र स्थाम्यंगेऽभूत्तेजोलेश्यया तपा। तीरकक्षोद् भवेनेष दावेन सरिदम्भसः ॥ ४१६ ॥ अकार्याय प्रयुक्ता धिगनेनेति क्रुधेव सा। तेजोलेश्या निवृत्यांगे गोशालस्याविशद् बलात्॥४१॥ .
-त्रिशलाका पर्व १.सर्ग
अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाकर गोशालक तीसरी बार फिर भमण भगवान महावीर स्वामी पर अनेक प्रकार के अनुचित वचनों द्वारा आक्रोश करने लगा, इत्यादि पूर्ववत् यावत् आज मुझ से तुम्हारा शुभ होनेवाला नहीं है । तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा-हे गोशालक जो तथा प्रकार के श्रमण-माहण से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि यावत् वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! उस विषय में तो कहना ही क्या है । मैंने तुझे प्रवर्जित किया यावत मैंने तुझे बहुश्रत किया, अब मेरे साथ ही तुने इसे प्रकार मिथ्यात्व (अनार्यपन) स्वीकार किया है। हे गोशालक ! ऐसा मत कर । ऐसा करना तुझे योग्य नहीं है। यावत तु वही है, अन्य नहीं है। तेरी वही प्रकृति है।
भ्रमण भगवान महावीर स्वामी के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और तेजस समुद्घात करके, सात, आठ चरण पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर . स्वामी का वध करने के लिए अपने शरीर में से तेजोलेश्या निकाली। जिस प्रकार वातोस्कलिका (ठहर ठहर कर चलने वाली वायु) और मंडलाकर वायु पर्वत, भीत, स्तभं या स्तुप द्वारा स्खलित एवं निवृत्त हो जाती है, किन्तु उसे गिराने में समर्थ-विशेष समर्थ नहीं हो सकती, इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वध करने के लिए मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने शरीर में से बाहर निकाली हुई तपोजन्य तेजो लेश्या, भगवान को क्षति पहुँचाने में समर्थ नहीं हुई। परन्तु वह गमनागमन करने लगी, फिर उसने प्रदक्षिणा की और आकाश में ऊँची उछली। फिर आकाश से नीचे गिरती हुई वह तेजो लेश्या गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हो गई और उसे जलाने लगी।
.११ अपनी तेजोलेश्या में पीड़ित गोशालक से भगवान् की वार्ता
१ तयाऽन्तर्दयमानोऽपि गोशालो धाष्ट र्यमाभितः। भगवन्तं महावीरमभ्यधत्तै मुद्धतः॥ ४१८ ।। मत्तेनोलेश्यया ध्वस्तः षण्मासान्ते हि काश्यप। पित्तज्वरपराभूतश्छद्मस्थोऽपि विपत्स्यसे ।।४१९॥ स्वाम्यथोषाच गोशाल! मृषा ते पागहं यतः। अन्यानिषोडशाम्दानि विहरिष्यामि केषली॥ ४२०॥
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