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(३१) किसी दिन भमण भगवान महावीर स्वामी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकलकर अन्य देशों में विचरने लगे। उस काल उस समय में दिक ग्राम नामक नगर था। उस मेदिक ग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में शाल कोष्ठक नामक उद्यान था। यावत पृथ्वी शिलापट था। उस शाल कोष्ठक उद्यान के निकट एक मालुका (एक बीज बाले वृक्षों का वन) महा कच्छ था। वह श्याम-श्याम कांति वाला यावत् महामेघ के समूह के समान था । वह पत्र, पुष्प, फल और हरित वर्णसे देदीप्यमान और अत्यन्त शोभित था । उस मैटिक ग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्री रहती थी। वह आन्य यावत् अपरिभूत थी। अन्यदा भमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम के विहार करते हुए मेंटिक ग्राम नगर के बाहर शाल कोष्ठक उद्यान में पधारे। यावत परिषद् वंदना करके लौट गयी।
२ 'मजो' ति समणे भगवं महाषीरे समणे णिग्गंथे आमंतेइ, आमंतित्ता एवं पयासी-एवं खलु अजो! ममं अंतेवासी सीहे णामं अणगारे पगभहए तं वेष सम्वं भाणियब्वं, जाष परुण्णे, तं गच्छह णं अज्जो ! तुज्झे सीहं अणगार सहह'। तएणं ते समणा णिग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं बंदहणमंसद, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ साल कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमंति, सा. २ परिणिक्वामित्ता जेणेष मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेष उवागच्छति, तेणेष उवागच्छित्सा सीहं अणगारं एवं पथाली-'सीहा! धम्मायरिया सहाति'। तएणं से सीहे अणगारे समणेहिं णिग्गंथेहि सद्धि मालुयाकच्छगाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्नमित्ता जेणेच सालकोट्ठए चेहए, जेणेष समणे भगवं महावीरे तेणेष उवागच्छर, तेणेष उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं जाव पज्जुवासह ।
-भग० श १५।१४६।१५१ पृ० ६६Y उसी समय भमण भगवान महावीर स्वामी ने भ्रमण-निर्ययों को बुला कर कहा"आर्यो ! मेरा अंतेवासी सिंह अणगार को यहाँ लिवा लाओ। भगवान को वंदन नमस्कार कर के वे भमण निर्मथ शालकोष्ठक उद्यान से चलकर मालुका कच्छ में सिंह अणगार के समीप बाये और कहने लगे-रे सिंह ! धर्माचार्य तम्हें बुलाते है। तब सिंह अणगार उन भमण निन्थों के साथ मालुका कच्छ से निकलकर शाल कोष्ठक उद्याम में भमण भगवान महावीर के पास आये और भगवान को तीन बार प्रदक्षिणा कर के यावत पयुपासना करने लगे। '२२ सिंह भणगार को सांतषना
१ सीहाई!' समणे भगवं महाषीरे सीहं अणगारं एवं बयासी-"से Jणं ते सीहा ! झाणंतरियाए परमाणस्स अयमेयासवे जाप परुण्णे, से पूर्ण ते
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