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१४- उडढं अहे य तिरियं दिसासु, तसाय जे थावर जेव पाणा । भूमियामि लंकाए दुगुं छमाणे, णो गरणइ बुलिमं किंचि लोए ।
तथा ऊँची, नीची और तिरछी दिशा में स्थित त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले संयमी मुनि लोक में किसी की निंदा नहीं करते हैं । ·४ गौशालक का प्रश्न -
वासं ।
१५ - आगन्तगारे आरामगारे समणे उभीते ण उवे दुक्खा हु संती बहवे मणुस्सा, ऊणातिरित्ता य लवालवा य ॥
तुम्हारा वह भ्रमण डरपोक है क्योंकि वह जहाँ बहुत से दक्ष, थोड़ा बहुत जानने बाले तार्किक और सिद्ध मौनी रहते हैं उन धर्मशालाओं में और उद्यान गृहों में नहीं ठहरता है ।
१६ - मेहाषिणो सिक्खिय बुद्धिमता सुत्तेहि अत्थेहि य णिच्छयण्णू । पुच्छिंसु माणे अणगार अण्णे इति संकमाणो ण उवेइ तत्थ ||
और वह वहाँ इस भय में नहीं ठहरता है कि वहाँ रहनेवाले मेधावी, शिक्षित, बुद्धिमान और सूत्र एवं अर्थ में पारङ्गत दूसरे साधु मुझ से कुछ पूछ न बैठे ।
आर्द्रक का उत्तर
१७- णाकामकिया ण य बाल किया रायाभियोगण कुओ भरणं । बियागरेजा पसिणं ण वाषि लकामकिच्चेणिह आरियाणं ॥
( तुम्हारा यह कहना व्यर्थ है । ) भगवान् निष्प्रयोजन और बाल कृत्य नहीं करते है - वे राजा के अभियोग से भी नहीं करते हैं। तो फिर दूसरे भय से उनकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है। वे प्रश्न का उत्तर देते भी हैं और नहीं भी देते हैं। क्योंकि वे आर्यों के कल्याण के उद्देश्य से धर्म उपदेश करते हैं या अपने ( तीर्थंकर नाम कर्म ) के निर्जरा के उद्देश्य से आर्यों के प्रश्न का उत्तर देते हैं ।
वियागरेजा समियासुपण्णे । अणारिया दंसणओ परित्ता इति संकमाणो ण उवेद्द तत्थ ||
१८- गंता च तत्था अदुवा अगंता
वे आशुप्रज्ञ वहाँ जाय यान जाय, पर समता से या यत्ना से ही बोलते है- प्रश्न का उत्तर देते हैं। पर प्रायः वे वहाँ यह जानकर नहीं जाते हैं कि अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं।
५ गोशालक का प्रश्न
१९- पण्णं जहा वणिए उदयठ्ठी आयल्स हेउं तओषमे समणे नायपुत्ते इच्चेच मे होइ
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पगरेइ संगं । मई घियक्का ।
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