Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 3
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 495
________________ ( ४१२ ) मुड गोमाउ मच्छु जलि अच्छिउ । ता ' लंपेक्खु वरें णिभच्छिउ ॥ वणिवरु पंथि कोधि सुठु-सुत्ता। रयण करंडउ तहु तहिं हित्तउ ।। पणि तुम्हारिसेहि अण्णाणहिं । सो कुसीलु कर हिंसिय-पाणहिं।। घत्ता-दुप्पेखें दुक्खें पीडियउ पणिवइआषर पत्तउ । जिण-वयणे रयणे पजियउ जीउ विणरह णिहित्तउ ॥४॥ -वीरजि० संधि ४/कड ४ '६ दृष्टांत द्वारा पाद-विवाद चालू गउ पाविठु दुछ उम्मग्गें । बिसय - कसाय - चोर संसग्गें। तं आयण्णिषि पर - धण - हारें। उत्तर दिण्णु बुद्धि - वित्थारें। सासुय कुद्ध सुण्ह गइणालइ । मरण - काम दिट्ठी तरु मूलह ।। णिसुणि सुवण्णदारु पाडहिए। आहरणहु लोहें मह-रहिएँ । मरणोपाउ सिह, धषलच्छिहि । गय मयणहि घर-पंकय-लच्छिहि ॥ महलि पाय दिण्णुगलि पासउ । तण्णिवाइ मुउ दुह, दुरास॥ सो मुउ जोइपि णीसासुण्हर । गेइ - गमणु पडिवण्णउ सुण्हा ।। जिह सो मुड घण • कंकण - मोहें । तिह तुहुँ म मरु मोक्ख सुह लोहें। -वीर जि. संधि ४/कड ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532