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अचिन्तयच गोशालो विपत्प्रथमतोऽप्यसौ । शुनेष स्वामिहीने न मया लब्धाऽध दुःसहा । ६०१ ॥ भर्तुश्च विपद नम्ति देवाः शक्रादयोऽपि हि । तत्पादशरणस्थस्य मयापि विपदोऽत्यनुः ॥ ६०२ ॥ क्षमं स्वयमपि श्रातुमुदादीनं तु कारणात् । मन्दभाग्यो निधिमिव तं प्राप्स्यामि कथं पुनः || ६०३ ॥ अन्वेष्यामि तमेमेति निश्चित्यातीत्य तद्वनम् । गोशालोऽभान्तमभ्राम्यत् प्रचुपाददिवृक्षया ॥ ६०४ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० • सर्ग
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भगवान से गोशालक का पृथक्करण - अनेक यातनायें
पंचम चतुर्मास के बाद तथा छठे चतुर्मास के पूर्व भगवान् वहाँ से विशाला नगरी के मार्ग में चले और गोशालक अकेला राजगृह के मार्ग में चला। आगे चलते सर्प वाले मोटे शकड़ा में उदर की बैठे-उस तरह उसमें पाँच सौ चोर रहते थे-ऐसे मोटे अरण्य में गोशालक ने प्रवेश किया ।
उनमें से एक चोर ने गीध की तरह वृक्ष के ऊपर से गोशालक को दूर से याता हुए देखा - और उसने अन्यान्य चोरों को कहा - " द्रव्य के बिना कोई नग्न पुरुष आता है। उसने कहो - भले ही नग्न हो - अपने को उसे छोड़ना नहीं चाहिए। क्योंकि वह किसी का प्रेषित चर पुरुष भी हो सकता है। इसलिए अपना पराभव करके कहीं चला न जाय । यह उचित नहीं है ।
ऐसा विचार कर नजदीक में आया हुआ गोशालक कोमामा ! मामा ! कहकर उसके कंधे पर चढ़कर उसे चलाने लगे ।
इस प्रकार बारम्बार चलाने से गोशालक के शरीर में श्वास मात्र अवशेष रहा। फलस्वरूप चोर लोग उसे छोड़कर अन्यत्र चले गये ।
तत्पश्चात गोशालक ने विचार किया - “भगवान् से अलग होने से प्रारंभ से ही श्वान की तरह मैंने ऐसी दुःसह विपत्ति का भोग किया। प्रभु की विपत्ति को इन्द्रादिक देव आकर दूर करते हैं तो उनके चरण की शरण आने से हमारी भी विपत्ति का नाश होता है ।
जो प्रभु रक्षण करने के लिए स्वयं समर्थ होते हुए भी किसी कारण उदासीन रहते हैं। ऐसे प्रभु को मन्द भाग्यवान पुरुष धनकी निधि को प्राप्त करते हैं उस प्रकार मैं किस प्रकार प्राप्त करूँगा अतः मुझे चलकर उसे प्राप्त करना चाहिए ।
ऐसा निश्चय कर गोशालक प्रभु के दर्शनार्थं वन का उल्लंघन कर अधांत रूप से भ्रमण करने लगे ।
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