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( ३९६ ) एवं वुधइ-नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं (धम्मोषएसएणं समणेणं भगधया) महावीरेणं सद्धि विषादं करेत्तए । ५०॥
--उवा० अ७ उसके बाद सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक ने मंखलि पुत्र गोशालक को इस प्रकार
कहा
हे देवानुप्रिय ! तुम 'इतिछकाः' इस प्रकार छेक-प्रस्ताव को जानने वाले यावत् इस प्रकार निपुण सूक्ष्मदर्शी, इस प्रकार नयवादी नीति के उपदेशक, ऐसे उपदेशलब्धाआप्त के उपदेश का श्रवण किया है और इस प्रकार विज्ञान प्राप्त है तो तुम हमारे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के साथ में विवाद करने में समर्थ हो । यह अर्थयुक्त नहीं है।
है देवानुप्रिय ! ऐसा किस कारण से कहते हो, कि तुम हमारे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के साथ में विवाद करने में समर्थ नहीं हो।
है सद्दाल पुत्र ! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान-उत्तमकाल में उत्पन्न हुआ यावद निपुण शिल्प को प्राप्त हुआ-वह एक अज, एडक-घेटा, सुकर, कुकड़, तेतर, बतक, लावा, कपोत, कपिंजल, वायस और श्वेत-बाज को हाथ में, पैर में, खरी में, पुंछड़े, पिंछाए, शीगड़े, विषाण-सुकर के दांत के रुवाटे जहाँ जहाँ पकड़े वहाँ-२ निश्चल और स्पंद रहित धारण कर सकता है ।
इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर मुझे बहुत अर्थो, हेतुओं यावत उत्तरों से जहाँ-२ पकड़े वहाँ-वहाँ निरुत्तर करते हैं
इस कारण हे सद्दाल पुत्र ! मैं ऐसा कहता हूँ कि मैं तुम्हारे धर्माचार्य यावत् भगवान महावीर के साथ में विवाद करने में समर्थ नहीं हूँ।। •३ गोशालक द्वारा भगवान महावीर का गुणकीर्तन
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोपासएणं अण्णढिजमाणे अपरिजाणिजमाणे पीढ-फलग-सेजा-संथारद्वयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेइ आगए णं देषाणुप्पिया! इह महामाहणे ? तए णं से सहालपुत्ते समणोपासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं पयासी-केणं देवाणुप्पिया! महामाहणे।
तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सहालपुत्तं समणोपासयं एवं पयासीसमणे भगवं महावीरे महामाहणे ।
से केण?णं देवाणुप्पिया! एवं बुधइ-समणे भगवं महावीरे महामाहणे?
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