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जमीन खोदने से एक रत्नों का भव्यतम मुकुट निकला । कारीगरों ने महाराज को सूचित किया । महाराज ने उसे अपने मस्तक पर लगाकर ज्योंही अपना मुख दर्पण में देखा तो उस मुकुट के योग से दो सुख नजर आये, इसलिए महाराज जय का नाम द्विमुख पड़ गया ।
चित्रशाला सांगोपांग तैयार कराई गई। शुभ मुहूर्त में उसका उद्घाटन समारोह हुआ । चित्रशाला के मध्य में एक इन्द्रध्वज आरोपित किया कया । अनेकानेक ध्वजाओं में वह इन्द्रध्वज बहुत ही मोहक लग रहा था। समारोह संपन्न हुआ । साजसजा की सभी सामग्री यथा-स्थान रख दी गई। इन्द्रध्वज वाले लकड़े को भी एक तरफ फेंक दिया गया । अब उसे कौन संभाले । एक ओर पड़े उस स्तम्भ पर मिट्टी जमने से वह विरूप सा लग रहा था। महाराजा द्विमुख सहसा उसे देख लिया। पूछने पर महाराज को बताया कि यह वही इन्द्रध्वज वाला स्तम्भ हैं ।
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यह सुनकर महाराज की तो भावना ही बदल गई। शोभा पर वस्तुओं से है । सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से है ली हुई है, ऐसी मोहकता मुझे नहीं चाहिए। पराये पूतों से आप में ही मुझे लीन हो जाना चाहिए ।
यो चिन्तन कर राजा द्विमुख सारे वस्त्राभूषणों को उतारकर पंचमुष्टि लोच करके महामुनि 'द्विमुख' बन गये । अद्भुत संयम और तप की साधना के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पद प्राप्त किया और प्रत्येक बुद्ध कहलाये ।
एवं संसारि-सत्ताण वि संपय-विवयाउ ति । अयि - दण
सिरिह आवद्द व जो इंद केणो बुद्धो । एस गई सन्वेसिं दुम्मुह-रायाणि धम्मंमि ॥ एसोषि गहिय सामण्णो बिहरिडं पषत्तोत्ति ।
चिंतन चला - यह सारी सारी चमक-दमक उधार कब घर बसा है ? अपने
३. नमीराजा -- प्रत्येक बुद्ध
तहा विदेहा जणवए मिहिला-नयरीए नमी राया । तस्स य दाहणराभिभूयस्स विज्जेहिं चंदणरसो कहिओ । तं च धसंताण महिलियाण बलय झंकारो जाओ । तमसहतेण रायणा अबणेयाचियाओ एक्केक्कं वलयं ।
तद्दाषि न झीणो सहो पूणो दुहय-तय-ख- उत्थमचणीयं, तहा बिन निट्ठिओ सहो । पुणो एक्केक्कं धाभूयं । तओ पसंतो सन्बो चिसो । इत्थतरस्मि चितियं राहणा
अब्बो ! जावइओ दुक्ख-नियरोति ।
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धन-धन्नरयण-सयणाइ संजोगो ।
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तावइओ
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