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एवं त्वमपि
गोशालोऽनन्योऽव्याख्यान् स्वमभ्यथा ।
किमर्थं भाषसेऽलीकं स एवास्यपदो न हि ॥ ४०२ ॥
- त्रिशलाका • पर्व १० । सगं ८
गोशालक को सही स्थिति बताना
तपणं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी - 'गोसाला ! से जहाणामए तेणए सिया, गामेक्लएहिं परम्भमाणे प० २ कत्थ ग वा दरि वा दुग्गं णिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सारमाणे एगेणं महं उष्णालोमेण वा सणलोमेण वा कम्पासपम्हेण वा तणसूपण वा अन्ताण आवरिता ण चिट्ठेजा से ण अणावरिए आवरियमिति अप्पा मण्णइ, अप्पच्छपणे य पच्छण्णमिति अप्पाण मण्णइ अणिलुक्के णिलुक्कमिति अप्पाण मण्ण, अपलाए पलायभिति अप्पाणं मण्णा एवामेव तुमं पि गोसाला ! अणपणे संते अण्णमिति अप्पाणं उपलभसिं, तं मा एवं गोसाला ! णारिहसि गोसाला ! सच्चे ते सा छाया णो अण्णा ।'
-भग० श १५/१०२ पृ० ६८०
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(गोशालक के उपर्युक्त कथन पर ) श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा – “हे गोशालक ! जिस प्रकार कोई चोर ग्रामवासियों के द्वारा पराभव पाता हुआ, खड्डा, गुफा, दुर्ग ( दुःखपूर्वक कठिनता से जाने योग्य स्थान ) निम्न (नीचा स्थान ) पर्वत या विषम स्थान को प्राप्त नहीं करता हुआ, एक उनके बड़े रोम ( केश ) से, शण के रोम से, कपास के रोम से और तृण के अग्र भाग से अपने से ढक कर बैठ जाय और वह नहीं ढका हुआ भी अपने आपको ढका हुआ माने, अप्रच्छन्न होते हुए भी अपने आप को छिपा हुआ माने लुका हुआ न होते हुए भी अपने आपको लुका हुआ माने, अपलापित (गुप्त) नहीं होते हुए अपने आपको गुप्त माने, उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य ( दूसरा ) नहीं होते हुए भी अपने आपको अन्य बता रहा है। हे गोशालक । तू ऐसा मत कर । ऐसा करने के योग्य नहीं है। तु वही है, तेरी वही प्रकृति है । तु अन्य नहीं है ।
•८ गोशालक की तेजो लेश्या से-दो साधु को पंडित मरण
१ सर्षानुभूति
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सर्वज्ञशिष्यः सर्वानुभूतिगुंर्वनुरागतः । अक्षमस्तद्वचः सोढुं गोशालकमभाषत ॥ ४०४ ॥ गुरुणा दीक्षितोऽनेन शिक्षितोऽस्यमुनैव हि । नि, नुषे हेतुना केन गोशाल ! त्वं सएवहि || ४०५ ॥
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