Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 3
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 450
________________ ( ३६७ ) अथ गोशालकः कोपात्तेजोलेश्यामनाहताम् । सर्वानुभूतयेऽमुञ्चद् दृग्ज्वालामिव दृग्विषः || ४०६ ।। निर्दह्यमानः सर्वानुभूतिर्गौशाललेश्यया । शुभध्यानपरो मृत्वा सहस्राने सुरोऽभवत् ॥ ४०७ ॥ गोशालोऽपि हि तत्कालं स्वलेश्याशक्तिगर्चितः । निर्भर्त्सयितुमारेभे भगवन्तं पुनः पुनः ॥ ४०८ ॥ - त्रिशलाका० पर्व १० सर्ग ८ तेणं कालेणं तेणं समपणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईणजाणवर सव्वाणुभूई णामं अणगारे पगइभहए, जाव विणीए, धम्मायरियाणुरागेणं एयम असद्दहमाणे उठाए उट्ठे इ, उ०२ उट्ठित्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, ते० २ गच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी - 'जे वि ताव गोसाला ! तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं णिलामेह, से वि ताव वंदइ णमंसइ, जाव कल्लाणं मंगलं देवयं पज्जुवासह, किमंगपुण तुमं गोसाला ! भगवया वेब फवावि, भगवया बेच मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेष सिक्खाविए, भगवया चेष बहुस्सुईकए, भगवओ वेव मिच्छं विपsिaण्णे, तं मा एवं गोसाला । सच्चेव ते सा छाया णो अण्णा । तपणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सब्बाणुभूणामेणं अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुते ५ सव्वाणुभूइँ अणगारं तवेणं तेपणं एगाहच्च कूडाहश्च भासरासि करे! तपणं से गोसाले मंत्रलिपुत्ते सव्वाणुभूई अणगारं तवेणं तेपणं एगाहश्च कूडाहच्च भासरासि करिता दोच्खं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आउसणाहि आउसइ, जाव सुहं णत्थि । -भग० श १५/ १०४ १०६ पृ० ६८१ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पूर्व देश में उत्पन्न सर्वांनुभूति अनगार था । जो प्रकृति का भद्र और विनीत था । वह अपने धर्माचार्य के अनुराग से गोशालक की बात पर श्रद्धा न करता हुआ उठा और गोशालक के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा- हे गोशालक । जो मनुष्य तथा रूप श्रमण माहण के पास एक भी आर्य (निर्दोष) धार्मिक सुवचन सुनता है वह उनको वंदन नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप, ज्ञान स्वरूप मानकर पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक तेरे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान ने तुझे दीक्षा दी, तुझे शिष्य रूप से स्वीकार किया और तुझे मुंडित किया ? भगवान ने तुझे व्रत सामाचारी सिखाई - भगवान् ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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