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हे आनंद ! इसलिये तुजा और गौतम आदि भ्रमण-निर्ग्रन्थों से कह कि – हे आर्यो ! गोशालक के साथ उसके मत में प्रतिकूल तुम कोई भी धर्म सम्बन्धी चर्चा, प्रतिसारणा ( उसके मत के प्रतिकूल अर्थ को स्मरण करने रूप ) तथा प्रत्युपचार ( तिरस्कार रूप वचन ) मत करना । गोशालक ने भ्रमन-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेषतः मिथ्यात्व ( म्लेच्छपन अथवा अनार्यपन) धारण किया है। भगवान् को वंदना नमस्कार करके आनंद स्थविर, गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों के पास आये और उन्हें संबोधन कर इस प्रकार कहा - 'हे आर्यों ! आज छट्ठक्षमण पारणे के लिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर मैं श्रावस्ती नगरी में आया, हे आर्यो ! आप कोई भी गौशालक के साथ उनके मत के प्रतिकूल धर्म - चर्चा मत यावत् उसने भावण निर्ग्रन्थों के साथ अनार्यपन किया है ।
६ गोशालका आगमन
(क) तेषां
गत्वाऽऽख्यदानन्दस्तदा
गोशालकोऽपि हि ।
तत्र ssगत स्वामिनोऽग्रे चावस्थ य व्यवथीदिति ॥ ३६५ ॥ भोः काश्यप ! वदस्येवं गोशालो मंखतेः सुतः । अन्तेवासी ममेत्यादि तन्मृषा भाषितं तथा ॥ ३६६ ॥ गोशालस्तव यः शिष्यः स हि शुक्लाभिजातिकः । धर्मध्यानस्थितो मृत्वा त्रिदशेषूदपद्यत || ३६७ ॥ तद्द ऽस्मिन्नुपसर्ग परीषह विशम् । उदायनामाऽहमृषिः परित्यज्य निजं वपुः ॥ ३६८ ॥
सुतम् ।
ततो मामपरिज्ञाय गोशालं मंखले स्वशिष्यं कथमाख्यासि न खल्वसि गुरुर्ममा || ३६६ ॥
(ख) जावं य णं आणंदे थेरे गोथमाईणं समणाणं णिग्गंथाणं एयमट्ठ परिकर तावणं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीण कुंभकाराचणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिलं वहमाणे सिग्धं तुरियं जाव सावत्थिं जयरिं मज्झंमज्झेणं णिग्गच्छद्द, णिग्गच्छिता जेणेव कोट्ठए खेइए, जेणेव समणे भगवं महाबीरे तेणेच उबागच्छद्द. तेणेब उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिबा समणं भगबं महावीरं एवं वयासी - 'सुछु णं आउसो कालवा ! ममं एवं बयासी, साहूणं आलो कासवा ! ममं एवं बयासी - गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले• २ जे गं से मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किया अण्णयरेसु देवलोपसु देवताप
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- त्रिशलाका० पर्व १० सर्ग ८
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