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( ३६३ )
हे व्यानंद ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तपतेज से यावत् भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है । हे आनंद! वह ऐसा करने में समर्थ हैं, परन्तु अरिहंत भगवान् को जलाकर भस्म करने में समर्थ नहीं है, तथापि उनको परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है ।
हे आनंद ! गोशालक का जितना तपतेज है, उससे अनगार भगवंतों का तपतेज अनंतगुण विशिष्ट है, क्योंकि अनगार भगवंत शान्ति-शान्ति क्षम ( क्षमा करने में समर्थ है।
हे आनंद ! अनगार भगवंतों का जितना तपतेज है, उससे अनंतगुण विशिष्ट तेज स्थविर भगवंतों का है, क्योंकि स्थविर भगवंत क्षान्ति क्षम होते हैं ।
हे आनंद ! स्थविर भगवंतों का जितना तपतेज है उससे अनंत गुण विशिष्ट तपतेज अरिहंत भगवंतो का होता है क्योंकि अरिहंत भगवंत क्षांति क्षम होते हैं । हे आनंद ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तपतेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु ( समर्थ ) है । यह उसका विषय ( शक्ति ) हैं और वह वैसा करने में समर्थ भी है । परन्तु अरिहंत भगवंतो को भस्म करने में समर्थ नहीं है - केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है ।
विवेचन - प्रभुत्व दो प्रकार का है - विषय मात्र की अपेक्षा और संप्राप्ति रूप अर्थात कार्य रूप में परिणत कर देने की अपेक्षा ।
इसलिए यहाँ मूल पाठ में विषय की अपेक्षा से और सामर्थ्य की अपेक्षा से पुनः प्रश्न किया गया है ।
भगवान का आदेश
तीर्थंकरकाल
तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठ परिकहि - 'माणं भजो ! तुब्भं केइ गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिवोयणाए पडिखोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेड, गोसाले णं मंखलिपुत्ते समणेहि णिग्गंथेहि मिच्छं विपडिवण्णे । तपणं से आणंदे थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महाबीरं बंद णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव गोयामाइसमणा णिग्गंथा तेणेव उबागच्छर, तेणेव उवागच्छित्ता गोयमाइसमणे णिग्गंथे आमंते, अमंतित्ता एवं बयासी - ' एवं खलु भजो ! छट्ठक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेण अन्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए णयरीए उच्चणीय तं चैव सव्वं जाव णायपुत्तस्स एममः परिकदेहि, तं मां णं अज्जो । तुब्भं केइ गोसाळं मंखतिवृत्तं धम्मियाए पडियोयणाए पडिचोपड, जाव मिच्छं feefsaud |
भग० श १५ | ६६।१०० पृ० ६७६
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