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( ३५० ) जत्तिय-मित्तो संगो दुक्खाण गणो षि तत्तिओ चेष।
अहवा सीस 'पमाणा हवंति खलु वेयणाओ पि॥
'तम्हा एगागित्तं सुंदर' ति मण्णंतो संबुद्धो एसो थि। खोषसमेण वेयणीस्स पउणीहूओ सरिय-पुष-जम्मो गहिय-सामण्णो पिहरेउं पयत्तो त्ति। अविय
रेणुं व पड-पिलग्गं राय-सिरिं उजिमऊण निक्खतो। म (मि) हिलाए नमी राया परिमुणियासेस परमत्यो॥
-धर्मों पृ० १२१ मालव प्रदेश में 'सुदर्शन' नगर का स्वामी था मणिरथ। उसके एक छोटा भाई 'युगबाहु' था। उसकी पत्नी 'मदन रेखा' वास्तव में ही मदन-कामदेव की रेखा ही थी।
युगबाहु के एक पुत्र था। उसका नाम नमि था।
मदनरेखा के पुत्र को वृक्ष की डाली से उतार कर मिथिला नरेश पद्मरथ अपने यहाँ ले गया। उसके कोई पुत्र न होने के कारण उसे ही अपना ही पुत्र मानकर लालन-पालन किया। संयोग भी बात उस पुत्र के वहाँ पहुंचते ही जो राजा 'पद्मरथ की आशा स्वीकार नहीं करने थे, ये अब सारे उसके पैरों में नतमस्तक है। इसलिए उसका नाम 'नमि' रखा गया।
वास्तव में नमि के पिता का नाम 'युगबाहु' था। युगबाहु के बड़े भाई का नाम मणिरथ था। तथा उसकी पत्नी का नाम 'मदनरेखा' था।
'नमिराज' उधर युवावस्था में पहुँचा । एक हजार स्त्रियों के साथ उसका विवाह हुआ। 'पद्मरथ' अपना सारा साम्राज्य नमि को सौंपकर स्वयं साधु बन गया।
एकदा नमिराज के शरीर में दाह-ज्वर का भीषण प्रकोप हुमा। उसे शांत करने हेतु रानियाँ मिलकर बावना चंदन घिसने लगी। घिसते समय हाथों के हिलने से हाथों की चूड़ियो की ध्वनि 'नमिराज' के कानों को अप्रिय लगने लगी। अतः आवाज को बंद करने के लिए कहा। महारानियों ने सुहाग के चिह्न स्वरूप एक-एक चूड़ी हाथों में रखकर शेष चूड़ियां निकालकर अलग रख दी। अब आवाज बंद होनी ही थी। आवाज को बंद देखकर 'नमिराज' ने कारण जानना चाहा। तब बताया गया कि अकेली चूड़ी कैसे शोर कर सकती है।
__ यो सुनते ही नमिराज प्रबुद्ध हो उठे। चिंतन की धारा ही बदल गई। नमिराज सोचभे लगे सारी चूड़ियाँ मिलकर कितना शोर कर रही थी। अकेलेपन में ही सुख है। ये सारे नौकर-चाकर, धन-वैभव, परिजन, पुरजन, पुत्र, कला आदि का समुदाय ही दुःखदाता है। अकेलेपन में सुख है, दो मिलने पर दुःख है ।
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