Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 3
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 443
________________ ( ३६० ) तपणं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेष उवा गच्छइ । -भग० श १५। ६५ उस समय श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आनंद नामक स्थविर थे। वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे और वे निरंतर छह-छठ की तपस्या करते हुए और संयम और तप से आत्मा को भावित कहते हुए विचरते थे । वे आनंद स्थविर छक्षमण के पारणे के दिन प्रथम पोरिसी में स्वाध्याय यावत गौतम स्वामी के समान भगवान् से आज्ञा मांगी, और ऊँच-नीच और मध्यम कुलों में गोचरी के लिए चले। वे हालाहाला कुंभारिन की दुकान के समीप होकर जा रहे थे । कि गोशालक ने आनंद स्थविर को देखा । गोशालक ने स्थविर को संबोधित कर कहा - हे आनंद यहाँ आ और मेरे एक दृष्टांत को सुन । गोशालक से संबोधित होकर आनंद स्थविर, हालाहला कुंभारिन की दूकान में गोशालक के पास आये । (ग) एवामेव आनंदा! तव वि धम्माय रिएणं धम्मोदपसरणं समणेणं णायकुत्तेणं ओराले परियाए आसाइए, ओराला कित्तिवण्ण -सह- सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुव्वंति, गुवंति थुवंति इति खलु 'समणे भगवं महाधीरे' इति खलु 'समणे भगवं महावीरे' । तं जइ मे से अज किचि वि बदह तो णं तवेणं तेएणं एगाहच्च कूडाहच्वं भासरासि करेमि, जहा वा वालेणं ते वणिया । तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि, संगोवामि, जहा वा से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए, जाब जिस्सेसकामए अणुकंपयाए देवयात् सभंड० जाब साहिए । तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस्स धम्मोपगस्स समणस्स णायपुत्तस्त एयमट्ठ परिहेहि । भग० श १५। ६६ |पृ० ६७४ गोशालक ने आनंद को कहा- - हे आनंद ! तेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, भ्रमण ज्ञातपुत्र ने उदार (प्रधान) पर्याय प्राप्त की है और देव. मनुष्य एवं असुरों सहित इस लोक में 'श्रमण भगवान् महावीर' श्रमण भगवान महावीर, इस प्रकार की उदार कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक (यश) व्याप्त हुआ है, प्रसूत हुआ है और सर्वत्र उनकी प्रशंसा और स्तुति हो रही है। यदि वे आज मुझे कुछ भी कहेंगे, तो मेरे तप तेज से, जिस प्रकार सर्प ने एक ही प्रहार से वणिकों को कूटाघात के समान जलाकर भस्म कर दिया, उसी प्रकार मैं भी जला कर भस्म कर दूँगा । हे आनंद ! जिस प्रकार वणिकों के उस हितकामी यावत निःश्रेयसकामी वणिक् पर नागदेव ने अनुकंपा की और उसे भंडोपगरण सहित अपने नगर में पहुँचा दिया, उसी प्रकार मैं तेरा संरक्षण और संगोपन करूँगा । इसलिए हे आनंद! तुजा और अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञात पुत्र को यह बात कह दे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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