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( २७५ ) - एक बार वे भगवान के पास आये और उनके अलग विहार करने की आशा माँगी। भगवान मौन रहे। वे भगवान को वंदना कर अपने पाँच सौ निग्रन्थों को साथ ले अलग विहार करने लगे।
विहार करते करते वे एक बार श्रावस्ती नगरी में पहुँचे। वहाँ विन्दुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में ठहरे । तपस्या चालू थी। पारणा में वे अँत-प्रान्त आहार का सेवन करते । उनका शरीर रोगाक्रांत हो गया। पित्तज्वर से उनका शरीर जलने लगा। वे बैठे रहने में असमर्थ थे । एक दिन घोरतम वेदना से पीड़ित होकर उन्होंने अपने श्रमण निग्रंथों को बुला कर कहा-भ्रमणो ! बिछौना करो। वे बिछौना करने लगे। पित्तज्वर की वेदना बढ़ने लगी। उन्हें एक-एक पल भारी लग रहा था । उन्होंने पछा-बिछौना कर लिया या किया जा रहा है। श्रमणों ने कहा-देवानु प्रिय ! बिछौना किया नहीं, किया जा रहा है । यह सुन उनके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई-भगवान क्रियमाण को कृत कहते हैं, यह सिद्धांत मिथ्या है । मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि बिछौना किया जा रहा है, उसे कृत केसे माना जा सकता है। उन्होंने तत्कालिक घटना से प्राप्त अनुभव के आधार पर यह निश्चय किया"क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता। जो संपन्न हो चुका है उसे ही कृत कहा जा सकता । कार्य की निष्पत्ति अंतिम क्षण में ही होती है, पहले-दूसरे आदि क्षणों में नहीं। १. यहाँ आचार्य मलयगिरि ने घटनाक्रम और सिद्धान्त पक्ष का निरूपण किया है, यह
भगवती सूत्र के निरूपण से भिन्न है। उनके अनुसार जमाली ने अपने भमणों से पूछा-“बिछौना किया या नहीं ? श्रमणों ने उत्तर दिया-'कर दिया। जमाली उठा और उसने देखा कि बिछौना अभी पूरा नहीं किया गया है । यह देख वह क्रुद्ध हो उठा। उसने सोचा-क्रियमाण को कृत कहना मिथ्या है । अर्द्धसंस्तृत संस्तारक (बिछोना) असंस्तृत ही है । उसे संस्तृत नहीं माना जा सकता।
आव० मलयवृत्ति, पत्र ४०२ २. जीव प्रादेशिक-भगवान महावीर के कैवल्य प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चाव ऋषभपुर में जीव प्रादेशिक वादकी उत्पत्ति हुई ।
सोलसवासाणि तया जिनेश उप्पाडियण्स्स नाणस्स जीधपएसिअदिट्ठी उसभपुरग्गो समुप्पन्ना -आय माध्यगा १८७
एक बार ग्रामानुग्नाम विचरण करते हुए आचार्य वसु राजगृह नगर में आए और गुणशील चैत्य में ठहरे। वे चौदह पुर्वी थे। उनके शिष्य का नाम तिष्यगुप्त था। वह उनसे आत्मप्रवादपूर्व पढ़ रहा था । उसमें भगवान महावीर और गौतम का संवाद आया
गौतम ने पूछा-भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है। भगवान-नहीं।
-श्राव. नि दीपिका पत्र १४३,
___ यह राजगह का प्राचीन नाम था
ऋषभरे राजगहस्या
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