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( ३३७ ) तथेति प्रतिपद्यासौ नृपं पुष्पफलादिना । प्रवृत्तः सेषितुं विप्रो रत्नेच्छुरिष सागरम् ॥ ७४ ॥ कदाचिदथ कोशाम्बी चम्पेशेनामितैबलैः। घमर्तुनेष मेघेद्यौररुध्यत समन्ततः ।। ७५ ॥ सानीकोऽपि शतानिको मध्येकौशाम्बितस्थिवान् । प्रतीक्षमाणः समयमन्तविलमिवोरगः ॥ ७६ ॥ चंपानिर्वाण कालेन बहुना सन्न सैनिकः। प्रावृषि स्वाभयं यातुं प्रवृत्तो राजहंसषत् ॥ ७७ ॥ तदा पुष्पार्थमुद्याने गतोऽपश्यञ्च सेडुकः । तं क्षीणसैन्यं प्रत्यूषे निष्प्रभोडुमिवोडुपम् ॥ ७८ ॥ तूर्णमेत्य शतानीके व्यजिज्ञपद्साविदम् । याति क्षीणबलस्तेऽरिभग्नदंष्ट्र इवोरगः ॥ ७६ ॥ यद्यद्योत्तिष्ठसे तस्मै तवा ग्राह्यः सुखेन सः। बजीयानपि खिन्नः सन्ननिम्ने नाभि भूयते ॥ ८० ॥
-त्रिशलाका पर्व १०।सर्ग ६
इस विश्व में प्रख्यात ऐसी कौशाम्बी नाम की नगरी में शतानिक नामक राजा राज्य करता था । उस नगरी में सेडुक नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह सदा दरिद्रीपन की सीमा और मुखपन की अवधि था ।
अन्यदा उसकी स्त्री सगर्भा हुई फलस्वरूप उस ब्राह्मणी ने सेडुक को कहा कि"भटजी! मेरे सूतिकर्म के लिए घृत लाकर दो। उसके बिना मेरे से व्यथा सहन नहीं होती।
प्रत्युत्तर में वह बोला-'प्रिया ! मेरे में ऐसी कुछ भी कुशलता या कला नहीं है कि जिससे मुझे कुछ प्राप्त हो । क्योंकि धनादय पुरुष गण कला से ही ग्राह्य होते हैं ।
फिर वह बोली कि-जाओ, किसी राजा के पास याचना करो। पृथ्वी में राजा जैसा दूसरा कल्पवृक्ष नहीं है। यह बात मान्यकर सेडुक उस दिन से पुष्पफल आदि से जेसे रत्नों का इच्छुक व्यक्ति सागर का सेवन करता है उसी प्रकार राजा को सेवन करने लगा।
अन्यदा चम्यानगरी का राजा जैसे वर्षा ऋतु बादलों को घेरती है उसी प्रकार अमित शक्ति से कौशाम्बी नगरी को घेर लिया।
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