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( २७३ )
पंचम निदान
मनुष्य के भोगों की अनित्यता का वर्णन -
एवं खलु समणाउसो मपधम्मे पण्णत्ते इणमेष निग्गंथे - पाचयणे तद्देव । जस्सणं धम्मस्स निग्गंथे वा ( निग्गंथीवा ) सिक्खाए उवट्ठिए विहरमा पुरादिगिंच्छाए जाव उदिण्ण कामभोगे विहरेजा, से य परकम्मेज्जा से य परकम्ममाणे माणुस्सेहि कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा अणितिया असासया सडण- पडण- विद्ध सण-धम्मा उच्चार पासवण खेल - जल-सिंघाणग-वंत-पित्त सुक्क सोणिय समुब्भवा दुरुष स निस्सासा दुरंतमुत्त-पुरीस पुण्णावंतासवा पित्तासवा खेलासवा पच्छा पुरं च णं अवस्सं विप्प - जहणिज्जा ।
- दसासु द १०
हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है, यही निर्ग्रन्थप्रवचन यावत् सत्य और सब दुःखों का नाश करने वाला है । जिस धर्म की शिक्षा के लिये उपस्थित होकर विचरता हुआ निर्ग्रन्थ ( अथवा निर्ग्रन्थी ) बुभुक्षा यदि यावत् कामभोगों के उदय होते हुए भी संयममार्ग में पराक्रम करे और पराक्रम करते हुए भी मनुष्य सबन्धी कामभोगों में वैराग्य को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वे अनियत हैं, अनित्य हैं और क्षणिक हैं, इनका सड़ना - गलना और विनाश होना धर्म है, इन भोगों का आधार भूत मनुष्य शरीर विष्टा, मूत्र, श्लेष्म, मल, नासिका का मल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से बना हुआ है। यह कुत्सित उच्छ्वास और निश्वासों से युक्त होता है, दुर्गंध युक्त मूत्र और पुरीष पूर्ण है । यह वमन का द्वार है, इससे पित्त और श्लेष्म सदैव निकलते रहते हैं । यह मृत्यु के अनन्तर या बुढ़ापे से पूर्व अवश्य छोड़ना पड़ेगा ।
देवलोक के काम-भोगों का वर्णन :
संति उड्ढ देवा देवलोगंसि तेणं तत्थ अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजुंजिय (इ) २त्ता परियारेंत अप्पाणो चेव अप्पणं वेडन्विय (इ) २त्ता परियारेंति अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजुंजय ( इ ) २त्ता परियारेंत ।
संति इमस तव नियमस्स जावतं खेव सव्वं भाणियव्वं जाव वयमवि आगमेस्साणं इमाइ ं एयारूबाइ दिव्वाइ' भोगभोगाइ भुंजमाणे विहरामो ।
से तं साहू |
- दसा सु० द १०
ऊर्ध्वं देवलोकों में जो देव है। उनमें से एक तो अन्य देवों की देवियों को वश में करके उनको उपभोग में प्रवृत्त कराते हैं, दूसरे अपनी ही आत्मा वैक्रिय रूप बनाकर उनको उपभोग में प्रवृत्त कराते हैं। तीसरे अपनी ही देवियों को भोगते हैं ।
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