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( २८८ ) तदाचाशोकचन्द्रस्य खिन्नस्य गगनस्थिता । देव्याख्यदीदृशं ' रुस्टा श्रमणे कलवालके । गनियं चे मागधियं शमने कुलवालके । लभिज्ज कृणि एल ए तो वेशालि गहिस्सिदि ॥३१६ आकाशदेवतावाचमिमामाकर्ण्य कूणिकः । बभाण सद्यः सजातजयप्रत्याशयोच्छ्चसन् । बारका नां हि भाषा या भाषा या योषितामपि ॥
औत्पातिकी च भाषा या सा वै भवति नाऽन्यथा । तत्क्वास्ति श्रमणः कृलवालकः प्राप्स्यते कथम् । पण्यांगना मागधिकाभिधाना विद्यते क वा ॥३१९॥
त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग १२ फिर भी कूणिक विशाला को कब्ज करने संबंधी प्रतिज्ञा ली। "पराक्रमी पुरुषों को प्रतिज्ञा करने से पुरुषार्थ वृद्धि को प्राप्त होता है। वह प्रतिज्ञा इस प्रकार थीयदि मैं इस विशाला नगरी को गधे से जोड़े हुए हल से न खोदु तो हमको भृगुपात या अग्निप्रवेश करके मर जाना है ।। .... - उसने ऐसी प्रतिज्ञा की थी फिर वह विशाला पुरी का भंग न कर सका। इस कारण उसको बहुत खेद हुआ।
इसी अवसर पर कर्मयोग से कुल बालक पर रुष्टमान हुई देवी आकाश में रहकर कहा कि हे कूणिक ! जो मागधिका वेश्या कुल बालक मुनि को मोहितकर मश करे तो तुम विशाला नगरी को ग्रहण कर सकते हो।"
__ऐसी आकाशवाणी सुनकर तत्काल उसको जयकी प्रत्याशा उत्पन्न हुई। ऐसा कूणिक सज होकरबोला- "बालकों की भाषा, स्त्रियों की भाषा और औत्पात्तिकी भाषा प्रायः अन्यथा नहीं होती है। तो यह कुलबालक मुनि कहाँ है। और किस प्रकार मिल सकता है। और मागधिका वेश्या कहाँ है ।" रथमूसल संग्राम का एक प्रसंग
बहुजणेणं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति, जावपरुवेइ--एवं खलु बहवे मणुस्सा अन्नयरेसु उच्चावए सु संगामेसु अभिमुहाचेवपहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु उववत्तारो भवंति
सेकहमेयं भंते ! एवं ?
गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति-जाव उव. पत्तारो भवंतिः जेतेएवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु
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